27. मन की निर्मलता... महात्मा बुद्ध के दो भिक्षु

जयगुरुदेव कहानी संख्या 27.

मन की निर्मलता। महात्मा बुद्ध के दो भिक्षु
*दृष्टिकोण भिन्न*
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एक बार महात्मा बुद्ध के दो भिक्षु पहाड़ी पर स्थित अपने मठ की ओर जा रहे थे। 

रास्ते में एक गहरा नाला था। वहाँ नाले के किनारे एक
युवती बैठी थी जिसे नाला पार करके मठ के दूसरी ओर अपने गाँव जाना था। 
लेकिन नाला इतना गहरा था कि युवती उसे पार करने का साहस नहीं जुटा पा रही थी।

उस युवती की तकलीफ़ देखते हुए
एक भिक्षु ने, जो अपेक्षाकृत युवा था, युवती को अपने कंधे पर बिठाया और नाले की दूसरी ओर जाकर छोड़ दिया। 

युवती अपने गाँव की ओर जाने लगी और भिक्षु ने अपने मठ की ओर कदम बढ़ाये।
और अपने गंतव्य की और चल पड़ें।

दूसरे भिक्षु ने उस भिक्षु से उस समय तो कुछ नहीं कहा, परन्तु मठ पर पहुँचते ही अपने साथी से कहा,  'यह तुमने आज क्या किया ? 
हमारे संप्रदाय में स्त्री को देखने की भी मना है लेकिन तुमने तो उस युवा स्त्री को अपने हाथों से उठाकर कंधे पर बिठाया और नाला पार करवाया?  यह बड़ी लज्जाजनक और अशोभनीय बात है।'

पहला भिक्षु बोला, 'ओह! तो यह बात है, इसीलिए तुम पूरा रास्ता क्रोधित दिख रहे थे। 

मैं तो उसे नाला पार कराने के बाद वहीं छोड़ आया था, लेकिन लगता है कि तुम उसे अभी तक ढो रहे हो। 

मित्र सुनो, संन्यास का अर्थ किसी की सेवा-सहायता करने की प्रवृत्ति को त्यागना नहीं होता, बल्कि मन से वासना और विकारों का त्याग करना होता है। 

यदि मनुष्य मन से अपने विकार और वासनायें निकाल दे तो वह एक उत्तम पुरुष बन सकता है। 

मनुष्य का चरित्र ही उसका परिचायक होता है।' 
यह सुनकर दूसरा भिक्षु बहुत लज्जित हुआ।

इसीलिए तो पूज्य बाबा उमाकान्त जी महाराज भी अपने सत्संग में कहते हैं-
बच्चों चरित्रवान बन जाओ,
देश सेवा कर नाम कमाओ।।

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प्रणाम। जयगुरुदेव।


Baba JaiGurudev 



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