【 *साधक के प्रति गुरु के वचन* 】
★ 1 *आशिक की पहिचान*
*१. गुरु के चरणो का कौन आशिक होगा ?*
जिसमें यह बातें पाई जावें। एक तो जिसमें मान नहीं है। दूसरा निर्लोभी है। गुरु और संगत में अपना तन लगाता हो। चौथा जिसमें क्रोध न हो। पांचवा सन्तों साधुओं की जिसके चित्त में कदर हो और इनका आदर करता हो। छंठवा जिसमें हर वक्त चिंता हो कि नर शरीर भजन के वास्ते पाया है और हर वक्त भजन में लगा रहता हो। ऐसा जीव गुरु के चरणों का आशिक होता है।
*२. कौन गुरु के चरणों का आशिक नहीं होगा ?*
जिसमें मान है, जिसमें क्रोध है, जो तन सेवा नहीं करता। जिसके चित्त में गुरु के वचन असर न करते हों। ऐसा जीव गुरु के चरणों का आशिक नहीं हो सकता है।
३. गुरु एक परमात्व पावर है जो मनुष्य पोल पर बैठकर परमात्मा के गुण अथवा शक्ति का इजहार करता है।
४. गुरु देखने में मनुष्य मालूम होते हैं, परन्तु अन्तर की शक्ति परमात्मा के साथ मिली रहती है। जैसे एक बिजली का तार ऊपर से रबड़ चढ़ी होती है परन्तु अन्तर में पूर्ण पावर काम करती है। उसी रबर को हटाकर मनुष्य तार के साथ जोड़ देता है तब उसकी शक्ति का इजहार होता है और देखने में पूर्ण रूप से मालूम होता है।
★ 2 *गुरु मिलने पर*
५. इस प्रकार तुम्हारे अन्तर से शक्ति काम करती है जब गुरु तुम्हें मिलते हैं तो अपनी कृपा से तुम्हारे ऊपर रबड़ की तरह खोल चढ़ा हुआ है जिसके कारण अपने आप की शक्ति को नहीं पहिचान पाते हैं गुरु रबड़ की खोल को हटाकर यानी कर्म आवरण को हटाकर इस सुरत को नाम पावर के साथ जोड़ देते हैं।
६. जब सुरत नाम पावर के साथ जुड़ती है उस वक्त अपनी निजी शक्ति का विकास होना शुरु हो जाता है।
★ 3 *सेवक के कर्तव्य*
७. साधक गुरु कृपा का सहारा स्वाभिमान को त्याग कर लेता है क्योंकि जब तक स्वाभिमान रहेगा तब तक शक्ति का विकास नहीं हो सकता। कारण जड़ मोटे खोल में जड़ता का स्वाभिमान रहता है जिसके कारण सूक्ष्म शक्तियां प्रगट नहीं होती हैं।
८. अपनेपन का त्याग करता हुआ जीव काम करता है वह तो साधक बनकर कुछ प्राप्त कर सकता है। पर अपने कर्म का अभिमान है तो साधक कहीं भी गिर सकता है।
९. सरलता साधक की इसी में है कि जो कर्म करे वह आज्ञा के अनुसार गुरु को अर्पण कर दे उससे साधक का बन्धन नहीं।
१०. कुछ लोग साधन करते हैं परन्तु उन्हें तरक्की क्यों नहीं होती ? इसका मुख्य कारण यह है कि जब साधन में बैठते हैं उसी वक्त उन्हें गुरु शब्दों का ध्यान नहीं रहता है।
११. साधना करने वालों के इरादे पहले से होने चाहिए इरादों के अनुसार साधक का साधन चलता है इसी अनुसार गुरु दया करता है।
१२. गुरु की दया का दरवाजा साधक जब पा सकता है, जबकि साधक साधना के द्वारा अपनी दोनों आंखोें को उलट कर ऊपर की ओर करे और अपनी सूक्ष्म दृष्टि टिक जावे और सुरत प्रकाश पाने लगे तो साधक को समझ लेना चाहिए कि गुरु की कृपा का दरवाजा खुलना प्रारम्भ हो गया है।
★ 4 *प्रकाश मिलने पर*
१३. साधक को प्रकाश का अभ्यास प्रतीत होने लगे और बार-बार प्रकाश सामने आने लगे तो उस वक्त साधक के विचार बहुत प्रफुल्लता के होने चाहिए। विचारों को दृढ़ करना चाहिए कि इस वक्त गुरु की दया का श्रोत आरम्भ हो गया है।
१४. जब प्रकाश सामने आने लगे तो उसी प्रकाश में अपना बिन्दु तलाश करना चाहिए।
★ 5 *बिन्दु मिलने पर*
१५. जब बिन्दु सामने आ जावे तो साधक को अपनी सुरत की दृष्टि जिसको निरत कहते हैं उसे बिन्दु पर टिका देना चाहिए।
१६. जब सुरत की दृष्टि उस बिन्दु पर टिकना शुरु कर दे तो साधक बहुत सावधानी के साथ उसी बिन्दु में यह कोशिश करे कि लय होने लगे।
१७. जब सुरत की दृष्टि उस बिन्दु में जिसमें प्रकाश निकल रहा है लय होने लगे उसी लय होने में कुछ परदे आने प्रारम्भ होने लगें उसी वक्त साधक सावधानी से एक जगह पर अपनी निगाह रखे।
१८. कोशिश साधक इस बात की करे कि जब उस बिन्दु में होकर परदे दिखाई दें तो साधक सदा परदा के साथ न घूम जावे।
१९. यदि साधक दृष्टि टिकाते वक्त उन परदों के साथ घूम गया तो सत्य है कि जो बिन्दु मिल गया था वह भी गायब हो गया और जो प्रकाश पाया था वह भी गायब हो जावेगा।
२०. साधक अपनी साधना से ही निराश होता है।
२१. साधक को गुरु शब्द याद न रहने से साधना का जो तरीका है उसमे साधक ने गल्ती की है इसी कारण साधन नहीं हो पायेगा।
*२२. जब कभी ऐसी अवस्था साधक की आवे उस वक्त साधक को चाहिए कि गुरु से पूछे। गुरु निकट न हों तो अपने से जो अधिक साधना करता हो और जिसका अनुभव हो उससे अपनी गल्ती का तरीका पूछे फिर साधक निराश नहीं होगा।*
२३. साधक की दृष्टि उस परदे के सामने टिकने लगे और प्रकाश बढ़ता हुआ नजर आवे तो साधक अपने निगाह को उसी प्रकाश पर रक्खे।
★ 6 *आकाश मिलने पर*
२४. कभी कभी साधक को सामने आकाश सा मालूम होता है। और फिर ऐसा मालूम होता है जैसे कि धुआ होता है। धुएं के वक्त साधक को कुछ दिखाई नहीं देता है।
२५. साधक को चाहिए कि अपनी दृष्टि उसी धुएं के सामने रक्खे। कुछ देर बाद धुएं जैसा आकाश साफ होगा और निर्मल आकाश नजर आवेगा।
२६. साधक को उसी निर्मल आकाश में देखना चाहिए।
२७. आकाश में जब साधक देखेगा तो उसे एक अद्भुत आकाश बंध हुआ नजर आवेगा। इसके देखने से साधक को सरूर मालूम होता है।
★ 7 *आत्म सुख*
२८. ऐसा साधक को प्रतीत होता है जैसे कि क्लोरोफार्म का नशा होता है। इसी तरह सुरत में एक नशा प्रारम्भ होता है।
२९. यह वही नशा है जिसे गोस्वामी जी ने आत्मानन्द कहा है।
*क्या कहूं आत्मसुख की महिमा,*
*जिन्हें परापत सोई जाना।*
३०. साधक भी इस आत्मसुख को पा सकता है।
३१. साधक बगैर गुरु की कृपा के आत्मसुख प्राप्त नहीं कर सकता है।
३२. इसी आत्मसुख के पाने के हेतु मनुष्य राजगद्दी पहले से त्याग देता है और उसी आत्मसुख की खोज में लग जाता है।
३३. साधक के ऊपर गुरु की बहुत बड़ी कृपा है कि सब सामानों के बीच रहते हुए आत्म सुख प्राप्त हो जाता है।
३४. इसी आत्म सुख को चित्त आनन्द स्वरूप कहा है। और इसी को गोस्वामी जी ने जड़ चेतन ग्रन्थी करके वर्णन किया है। इसी आत्म सुख को कहा है-
*परम प्रकाश रूप दिन राती,*
*नहि कुछ चहिए दिया घृत बाती।*
३५. साधक जब अपने अन्तर में यह परम प्रकाश प्रगट कर लेता है तो बहुत बड़ी खुशी होती है।
३६. यही आत्म सुख का वह स्थान है जहां आत्म साक्षात्कार होता है। इसी को सन्तों ने तीसरा तिल बयान किया है। यही प्रथम स्थान सुरत के जगाने का है। इन्हीं को चरण कंवल कहते हैं। इन्ही चरणों का ध्यान करने से साधक की दिव्य आंख खुल जाती है। इन्हीं चरणों के ध्यान अथवा साक्षात्कार से सुरत को अपने निज रूप का अनुभव होता है। यहीं चरण कंवल हैं जिनके प्राप्त करने से सुरत को आलौलिक शक्ति प्राप्त हो जाती है।
३७. इन्हीं चरण कंवलो में ऋद्धियां सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं।
३८. यही चरण कंवल हैं जिनको सीता जी ने पाया था। इन्हीं चरण कंवलों का साक्षात्कार राजा जनक को हुआ था इसी वास्ते राजा जनक विदेही कहलाये थे।
३९. इन्हीं चरण कंवल को पाकर सीता जी विनय करती हैं कि-
*सुनो विनय मम विटप अशोका।*
*सत्य नाम कर हर मम शोका।।*
४०. यहीं चरण कंवल हैं जो कि सत्यलोक से आकर चिदाकाश में ठहरे हैं।
४१. आकाश ऊपर है और चरण उसी आकाश में जड़े हैं। इनकी शोभा का वर्णन नहीं हो सकता है।
४२. ज्ञानी इन्हीं चरणों की महिमा अहम् ब्रह्मास्मि में कहते हैं। परन्तु उन्हें इन चरण कंवल को पाने में बहुत ही वैराग्य ज्ञान विवेक करना पड़ता है।
४३. इन्हीं चरणों को पाने के लिए गुरु की परम आवश्यकता पड़ती है।
४४. इन चरणों को पाने के हेतु साधक को यह करना होगा कि अपना सर्वांग गुरु अर्पण कर दे।
४५. सर्वांग गुरु अर्पण से विकारी वासनायें नहीं सताती हैं और अपने स्वाभिमान का त्याग हो जाता है।
४६. जब तक साधक को भेदी गुरु नहीं मिलेंगे तब तक साधक चरणों का दर्शन नहीं कर पाता है।
४७. अनेकों जन्मों के परदे सुरत के ऊपर दोनों आंखों के पीछे गिलाफ की तरह चढ़े हैं और इस जन्म का भी परदा चढ़ा हुआ है यानी जो कर्म अभी करता है उसका अक्स भी आंखों के लेन्स में होकर सुरत के ऊपर चढ़ता जाता है और सुरत को जड़ रूप में करता जाता है।
४८. जब तक साधक के ऊपर गुरु कृपा नहीं होगी तब तक साधक बाहरी वासनाओं का त्याग नहीं कर सकता है।
४९. साधक वासनाओं के वशीभूत हो चुका है जिसे छोड़ने में महान कठिनाई पड़ती है।
५०. गुरु का परिश्रम साधक के साथ प्रथम में यही होता है कि साधक अपनी वासनायें खत्म कर दे जिसके द्वारा साधक भोगों में फंसकर अकर्म करने लगता है।
५१. साधक गुरु वचन सुनकर अपनी इच्छायें गुरु शब्द के साथ लगा कर काट देता है।
५२. गुरु शब्द के साथ साधक यदि बंधा नहीं है तो साधक हमेशा इच्छाओं का गुलाम रहेगा।
५३. इच्छाओ का गुलाम साधक अन्तर में गुरु चरण अथवा राम चरण अथवा कृष्ण चरण प्रगट नहीं कर सकेगा।
५४. चूंकि साधक का हृदयस्थल पानी की तरह हिलोर मारता रहेगा इसका परिणाम यह होगा कि जब हृदय में स्थिरता न आई तो सुरत की दिव्य दृष्टि नहीं खुलेगी।
५५. मन चित्त चंचल होने से साधक अपनी दिव्य आंख अन्तर के तिल पर न जमा सकेगा।
५६. साधन करते समय साधक नियम से रहे तो साधक को अधिक लाभ होता है।
५७. साधक के अन्दर विश्वास की मात्रा जहां तक हो अधिक से अधिक पैदा करना चाहिए।
५८. जब साधक अन्तर में प्रकाश पाना शुरु कर देता है उस वक्त सावधानी साधक को रखना चाहिए, क्योंकि-
५९. प्रकाश के प्रगट होते ही अपने कर्मो को देखता है जहां कर्म खुद उसी समय प्रकाश को लोप करने की कोशिश करते हैं।
६०. जैसे पानी यदि मशीन में भरा है और नीचे कीचड़ जमा है। कैसे ऊपर आवेगा? जब हिलोर पैदा हो तब कीचड़ ऊपर आवे। कीचड़ ऊपर आने पर निर्मल पानी को गन्दा जरुर करेगा।
६१. इसी तरह साधक जब गुरु कृपा से साधना करता है अन्तर में प्रकाश आने लगते हैं तो कर्मो के हिलोरों से प्रकाश गन्दा हो जाता है।
६२. उस समय साधक सोचता है कि गुरु की कृपा खिंच गई या गुरु दया नहीं कर रहा है।
६३. साधक को समझ लेना जरुरी है कि गुरु हिदायत से साधन करता रहे कुछ समय बाद प्रकाश साफ हो जायेगा और निर्मल प्रकाश प्रगट हो जायेगा।
६४. साधक को घबराहट से साधन ढीला नहीं कर देना चाहिए।
६५. साधक अपनी बुद्धि गुरु चरणों में बांध दे और गुरु के शब्द याद करता रहे। यह अति आवश्यक है।
६६. साधक को गुरु शब्द याद करने से यह लाभ होगा कि जब साधक साधन में बेठेगा उस वक्त मन इन्द्रियां उसे भोगों की ओर नहीं खींच पायेंगी।
६७. साधन करते वक्त साधक को स्वभाव के अनुसार मन इन्द्रियां तंग करती हैं और साधन के वक्त साधन में न लग कर भोगों की ओर खींचती हैं।
६८. अभ्यास का मतलब यही है कि साधक साधन करने का अभ्यास डाले और भोग छोड़ने का स्वभाव साधन के द्वारा करे।
६९. साधक को स्वभाव पड़ा था भोगों की ओर वह साधन से कम होगा।
७०. जब साधक साधना में पकने लगे और भोग की ओर से इन्द्रियां अपने स्वभाव को कम कर दें या बिल्कुल न करें तो साधक को समझ लेना चाहिए कि गुरु की कृपा है और गुरु दया के हम पात्र बन रहे हैं।
जयगुरुदेव
शेष क्रमशः अगली पोस्ट no. 02 में...
Parmarthi vachan sangrah
sadhak bighan nirupan
एक टिप्पणी भेजें
1 टिप्पणियाँ
Jai Guru DEV Bhai Ji Malik k Sabko Aarsivaad Mile Jai GurudevSatsang Prathna Pade
जवाब देंहटाएंJaigurudev