जयगुरुदेव आध्यात्मिक सन्देश
दुनिया में काँटे इतने अधिक हैं कि हम आप उन्हें उठाते- उठाते पूरा जीवन भी बिता दें तो भी सभी काँटे नहीं उठा सकते हैं। इससे बेहतर यही है कि हम सब ख़ुद ही पाँव में जूता पहन लें ताकि दुनिया के इन काँटों से बचे रहें। ये जूता है अपने सतगुरु का हुकुम।
जब हम अपने सतगुरु के हुकुम में रहकर सुमिरन भजन में अपना समय लगायेंगे तो धीरे- धीरे हमारे अन्दर हर प्रकार की सहन शक्ति आ जायेगी।
इन बाहरी आँखों से जो कुछ देखते हैं, बाहरी कानों से जो कुछ सुनते हैं, बाहरी नासिका से जो कोई सुगंध-दुर्गंध लेते हैं, ज़ुबान से बोलते हैं या त्वचा से स्पर्श करते हैं, इन सबसे हमारे कर्म बनते हैं। हमें अंतर्मुख होना है, बहिर्मुख नहीं।
मन हमें हमेशा खींच कर बाहर ले जाता है। जब हम सुमिरन पर बैठते हैं तब हमारा मन दुनिया में चला जाता है और यही सोचने लगता है कि अमुक ने मेरे बारे में बहुत बुरा भला कहा है, अमुक की वजह से मेरा अभीष्ट पूरा नहीं हो पाया, अमुक मेरी निन्दा चुगली करता रहता है, आदि।
ये सारी बातें हमें सुमिरन से हटाने के लिये ही मन द्वारा रचित होती हैं और हम भी अन्दर ही अन्दर उन्हीं लोगों का ध्यान करते रहते हैं,उनका ही सुमिरन करते हैं, कई तरह की प्लानिंग करना शुरु कर देते हैं और कहते हैं कि हमारा सुमिरन में मन नहीं लगता है। लगेगा भी कैसे ? जब हम ध्यान ही संसार का कर रहे हैं तो मन ध्यान भजन में लगेगा कैसे ?
मन या काल का तो काम ही है हमें सतगुरु के सत्संग से बाहर लाना और सुमिरन ध्यान भजन में बाधा पैदा करना। वे तो अपनी ड्यूटी बखूबी निभा रहे हैं लेकिन हमें अपनी ड्यूटी निभाने के लिए तत्पर होने की ज़रूरत है। हमारी ड्यूटी है सुमिरन ध्यान भजन पर नियमित रूप से बैठना फिर चाहे मन लगे या नहीं, वो हमें अपने गुरू महाराज जी पर छोड़ देना है।
लेकिन बराबर कोशिश यही हो कि ध्यान सतगुरु का ही हो। फिर धीरे-धीरे सारे बाहरी ख़्याल निकल जायेंगे और हमें महसूस होने लगेगा कि जो हमारी निन्दा - चुगली कर रहे हैं, असल में वे हमें हमारी की हुई ग़ल्तियों का एहसास करा रहे हैं ताकि हमसे दोबारा गलती न हो, वे तो हमारे पापकर्म कम करने का ही कार्य कर रहे हैं।
एक अनपढ़ आदमी, जिसने कभी रेलवे स्टेशन नहीं देखा हो और न ही कभी ट्रेन से सफ़र किया हो और अगर उसे ट्रेन से दिल्ली जाना हो तो वो पहले रेलवे स्टेशन आता है। स्टेशन पर ढेर सारी ट्रेनों को देख कर सोच में पड़ जाता है कि आख़िर दिल्ली जाने की ट्रेन कौन सी है और उसमें सफ़र कैसे किया जाता है।
इसलिए वहाँ भटकता रहता है और वहाँ मौजूद भीड़ में एक-एक से पूछने की कोशिश करता है लेकिन सही और संतुष्टि भरा जवाब नहीं मिल पाता है।आख़िरकार उसकी ऐसी हालत देख कर किसी सज्जन पुरुष को उस पर तरस आता है और वे उससे कहते हैं कि भाई तेरे सभी सवालों के जवाब के लिए यहाँ पूछताछ ऑफिस है, वहाँ जाने पर तुझे पूरी जानकारी मिल जायेगी।
फिर पूछताछ ऑफिस से उसे जानकारी मिलती है कि दिल्ली को कौन सी ट्रेन कब और किस प्लेटफार्म से जाने वाली है, वहाँ उसे यह भी पता लगता है कि ट्रेन टिकट लिये बिना सफ़र सम्भव नहीं है जो टिकट-खिड़की से मिलेगा।
फिर वो अनपढ़ मुसाफ़िर टिकट लेकर निर्देशित ट्रेन में बैठ जाता है और धीरे-धीरे अपनी मंज़िल की ओर बढ़ते हुए सफ़र बड़ी आसानी से तय हो जाता है ।
वो अनपढ़ और मुसाफ़िर आदमी हम हैं, जो भटके हुए है, न तो मंज़िल का पता है, न सफ़र कैसे तय करना है, यह पता है। स्टेशन यह संसार है, जहाँ बहुत सारी भीड़ में हम ऐसे लोगों से रास्ता पूछते हैं जिन्हें
ख़ुद भी पता नहीं है।
वो सज्जन पुरुष मुर्शिद-ए-कामिल यानी सच्चे सन्त सतगुरु हैं, पूछताछ आफिस सत्संग है, ट्रेन से सफ़र करने का टिकट "नामदान" है, ट्रेन सुमिरन, ध्यान, भजन है जिसमें बैठे बग़ैर सफ़र तय होना असम्भव है। मन्ज़िल, जहाँ जाना है, निज धाम सचखण्ड है।
जयगुरुदेव
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