सन्त उमाकान्त जी महाराज ने समझाया प्रार्थना का मतलब

जयगुरुदेव

27.12.2022
प्रेस नोट
उज्जैन (म.प्र.) 

*सन्त उमाकान्त जी महाराज ने समझाया प्रार्थना का मतलब- विनय करूं मैं दोऊ कर जोरे, सतगुरु द्वार तुम्हारे* 

*वास्तव में आरती, पूजा, भोग, अंदर से होता है*

अपने अपनाए हुए जीवों के दुःखों तकलीफों को दूर करने वाले, मौत के समय जिनको और जिनके बताये हुए प्रभु के जीते जागते हुए जयगुरुदेव नाम को याद करने पर जीवात्मा की तुरंत संभाल करने वाले, जिनके आने पर यमराज और यमदूतों को भी पीछे हट कर बैरंग खाली हाथ लौट जाना पड़ता है, जन्मते और मरते समय होने वाली असहनीय पीड़ा को दूर करने वाले, सबको देने वाला भी इस समय जिनसे मांग रहा है, जिनकी मर्जी के बिना इस सृष्टि में एक पत्ता भी नहीं हिलता, ऐसे इस समय के युगपुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, त्रिकालदर्शी, परम दयालु, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने 19 अक्टूबर 2020 सायं उज्जैन आश्रम में बताया कि वास्तव में आरती, पूजा, भोग अंदर से होता है। तो दोनों आंखों के बीच में कहा गया- 

*विनय करूं मैं दोऊ कर जोरे, सतगुरु द्वार तुम्हारे*

हे गुरु महाराज, विनती करती हूँ आपके दरवाजे पर। कौन सा दरवाजा है उनका? एक तो मनुष्य शरीर से जहां रहते हैं वह दरवाजा। लोग भाव में वहां भी मत्था टेकते हैं लेकिन उनका असली द्वार कहां है? आना-जाना उनका कहां है? जिधर से आपका जीवात्मा का आना-जाना है। तो कहा की आपके दरवाजे पर हाथ जोड़कर हम खड़े हुए हैं, दोनों आंखों के बीच में।

*बिन घृत दीप आरती साजू, भाव सहित नित बैठ झरोखे जोहत प्रियतम प्यारे*
 
बिना दिया घी के हम आरती साझते हैं। हे मेरे सतगुरु, मेरे पिता, मेरे पति, मेरे परमेश्वर, बहुत नामों से लोगों ने उनको पुकारा। कहा की आपका दरवाजा जहां से आपका निकलना, आना-जाना होता है, जिधर दया करनी होती है, आपकी दया के दरवाजे पर हम बैठे हुए हैं, आपकी आरती, वंदना, प्रार्थना कर रहे हैं। भाव नहीं है तो भक्ति नहीं है, भक्ति नहीं है तो भाव नहीं है। यह दोनों एक-दूसरे से जुड़ी हुई चीजें हैं। यदि आदमी का भाव खराब हो गया तो न तो भक्ति आ सकती है न प्रेम और न लगाव हो सकता है। भाव से ही होता है। हमारा यह भाव है कि हम आपका दर्शन पूजा आरती करें, आपके चरण कमल का दर्शन करें, आपको अपने दिल में बसा लें। ऐ मेरे मालिक, मेरे सतगुरु, मैं नित (नित्य) आपको याद कर रहा हूं। 

*पग ध्वनि सुनु श्रवण हिय अपने, मन के काज बिसारे*

श्रवण यानी कान। तो उस जीवात्मा के कान से आपके पग की आवाज ही सुनाई पड़ जाए, पग ही दिखाई पड़ जाए आपका। मन की इच्छा खत्म करके। मन की इच्छा इस बात की नहीं होती है कि दुनिया की विषयों को हम छोड़ें। इस समय पांच दुश्मनों काम क्रोध लोभ मोह अहंकार की दोस्ती मन से हो गई। तो अब शील क्षमा संतोष विरह और विवेक रूपी सहेलियों सहयोगियों की मदद करने, साथ देने के लिए मन कभी कहता ही नहीं है। मन उनका कब साथ देगा? जब दुष्ट, पापी का साथ मिलने पर मन पाप की तरफ चला जाता है फिर पाप ही कराता है, तब सज्जन पुण्यात्मा के पास आना-जाना पसंद नहीं करता है। अभी मन कहां लगा हुआ है? शरीर के पालन-पोषण, दुनिया की चीजों, इंद्रियों के भोग में लगा हुआ है तो मन के काज बिसारे यानी इधर से मन के काज (कामों) को बिसार (भूल) करके यहाँ से ध्यान को हटाकर के साधक सुरत कहती है मैं प्रार्थना कर रही हूं, आप दया करो।

*जागी सुरत पियत चरणामृत, पियत-पियत हुई न्यारे*

जब सुरत में ज्ञान हो गया कि भाई हम यहां बहुत दिनों से पड़े हुए हैं, हमको कोई जगाने, बताने, अमिय (अमृत) रस पिलाने वाला नहीं मिला तो हमको अभी इधर (दुनिया) से ध्यान हटाना चाहिए और उधर चल कर अमिय रस पीना चाहिए। अभी तक तो हम इंद्रियों के रस को, मन के साथ को ही सब कुछ समझते रहे क्योंकि अंतर की आँख के सामने (कर्मों का) पर्दा लगा हुआ तो दिखाई नहीं पड़ा, समझ नहीं आया, कोई बताने वाला भी नहीं मिला कि यह अच्छी चीज नहीं हैं। हम दुनिया की चीजों को ही अच्छा समझते रहे तो अब मेरे ऊपर आपकी दया हो जाए। ऐसे समझो कि कहीं बगैर पानी के आपको रहना पड़ता है, कभी डॉक्टर बीमारी में मना कर देते हैं कि पानी देना नहीं तब यही पानी अमृत जैसा लगता है और कभी यही पानी जहर जैसा लगता है। जैसे सियार (गीदड़) पानी से डरते हैं, उनका काटा पानी देख कर बहुत डरता चिल्लाता भागता है। काटा हुआ धीरे-धीरे दो-तीन दिन में असर करता है, डॉक्टर भी जवाब दे देते हैं कि अब तो बच पाना बड़ा मुश्किल है, आप लोग भूल जाओ, उनसे कहो भगवान को याद करें। 

तो वहां पर (अंतर में) वहां का अमृत रूपी जल जब मिल जाता है, पी लेता है तो साधक मस्त हो जाता है। असली मस्ती तो वहीं पर है, यहां तो कोई मस्ती नहीं। यह सब क्षणिक चीजें हैं। थोड़ी देर के लिए मस्ती जैसे नाच-गाना देख-सुन लो, बाजा बजा लो, मस्त हो जाओ लेकिन यह बराबर मस्ती नहीं रहती है। साधना की, ऊपरी लोकों की मस्ती जब चढ़ जाती है तो फिर जल्दी उतरती ही नहीं है। जब दुनिया का काम करना, दुनिया की तरफ नजर रखनी है तब वह मस्ती ढीली पड़ी रहती है और जैसे ही साधक इधर से ध्यान हटाता है तो मस्ती का आनंद मिलने लगता है। अगर खान-पान चाल-चलन सही रहा, जड़ और चेतन माया से बचा रहा तो मस्ती बराबर मिलती रहती है। तो एक बार वह मस्ती आपके अंदर आ जाए, आप अगर सतगुरु से प्रार्थना करना, उनका भोग लगाना, प्रसादी खाना सीख जाओ तो आपका सब काम हो जाए, आपका जीवन सार्थक हो जाए। 

अब ये कैसे होगा? यह तो इसी रास्ते (नामदान) से होगा जो आपको बताया गया है। अगर आप करते रहोगे, लगे रहोगे, भले ही तरक्की नहीं हो रही है लेकिन तरक्की मिलने की इच्छा है तो आपको प्रेरणा, आप पर दया हो जाएगी और जिनको अभी तक पूरे समरथ गुरु नहीं मिले हैं, उनकी भी इच्छा होगी तो भी आपको प्रेरणा मिल जाएगी और आप समरथ गुरु के पास पहुंच जाओगे और वह आपकी मदद कर देंगे लेकिन आप लगो तो, सीखो तो।



Baba umakant ji maharaj



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