जयगुरुदेव
प्रेस नोट-नई दिल्ली
*भारत कैसे बना सोने की चिड़िया, कैसे बिगड़ी व्यवस्था और अब सुधार कैसे होगा -बाबा उमाकान्त जी महाराज*
इंसान सुखी कैसे हो, समाज समृद्ध कैसे बने, देश में ख़ुशहाली कैसे आये, न्याय सुरक्षा और रोजी रोटी कैसे मिले - इनका सरल रास्ता बताने वाले उज्जैन के पूज्य संत बाबा उमाकान्त जी महाराज ने 20 अक्टूबर 2019 को दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान से भक्तों को बताया कि मेहनत करके लोग सामान बनाते थे और विदेशों में जाता था। उसके बदले में वहां से सोना आता था। जब विदेशियों ने यह देखा भारत देश में सोना बहुत जा रहा है और इतना सोना चला गया और भारत सोने की चिड़िया कहा जाने लग गया तब उनको हो गई लालच कि चलो किसी भी तरह से हम सोने को लाएंगे। तो तरह-तरह के उपाय लोगों ने सोचे और यहां पर लोगों का आना शुरू हुआ। और जब आना शुरू हुआ तो वही राज करने लग गए। जब बादशाहीयत आ गई तो अपना रीतिरिवाज और अपनी परंपरा लोगों पर थोपने लग गए। विरोध भी हुआ। आप समझो जनता जब जगती है, जनता को ज्ञान होता है कि इस तरह का हमारे ऊपर अत्याचार अन्याय हो रहा है तब वह प्रयास करती है। जब जनता नहीं सोच पाती है तो उस मालिक से आवाज लगाती है, वह कोई न कोई तरीका लोगों की खुशहाली के लिए निकाल देता है।
*भारत मे पहले धार्मिकता बहुत थी*
अब इस तरह से जब मुसलमान आए उन्होंने राज्य किया। फिर अंग्रेज आए उन्होंने राज्य किया। अंग्रेज तो ऐसे राज्य करने के लिए नहीं आए थे, वह तो व्यापार करने की नीयत से आए थे लेकिन उन्होंने देखा कि यहां के लोग बड़े मेहनतकश, यहां के लोग सीधे, सच्चे अच्छे हैं और ईमानदारी बरतते हैं, यहां की जो धरती है वह बहुत उपजाऊ है, यहां पर धार्मिक भावना लोगों में ज्यादा है। इसका उन्होंने अध्ययन किया। जो धार्मिक होता है वह सब की मदद करता है, सत्य बोलता है, हिंसा-हत्या पर विश्वास नहीं करता, जो मजहबी होता है खिदमत पर विश्वास करता है, लोगों की सेवा करता है, परोपकार और दूसरों की मदद करता है। तो इस तरह का वातावरण उस समय पर बहुत था।
*संस्कृत ऐसी भाषा है जिससे ओ मालिक के संविधान को जाना समझा जा सकता है*
एक तो उन्होंने देखा कि यह देश बहुत अच्छा है। उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया। संस्कृत एक ऐसी भाषा है कि दुनिया के लिए, कुदरत के प्रकृति के उस मालिक के संविधान को जाना समझा जा सकता है। पहले संस्कृत भाषा में आयतें जिसको कहते हैं उतरी थी। ब्रह्मा के मुंह से जिसको वेद वाणी कहा गया। वह संस्कृत में ही आयत थी। उस भाषा को जब नहीं समझ पाए तो हिंदी में अनुवाद किया जैसे देश का संविधान है।
*राज करने के लिए अंग्रेजों ने समाज में परिवर्तन लाये*
ऐसे ही पूरे विश्व का किसने बनाया? ब्रह्मा ने बनाया। ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना किया था। उन्होंने सब बना दिया, लिख दिया। अंग्रेजों ने इस संस्कृति का अध्ययन किया और लिखकर के इंग्लिश में वहां भेजा। तब उन्होंने उस पर शोध किया कि कैसे किस इन पर हुकूमत किया जाए। उन्होंने यही सोचा कि इनके खान-पान को खराब किया जाए, इनके पहनावे को खराब किया जाए। इनके विचार और भावनाओं को बदला जाए। इस में परिवर्तन किया जाए तो शिक्षा की नीति ही बदल दी। शिक्षा में परिवर्तन, खानपान जब धीरे-धीरे बिगड़ने लग गए तो आप ही समझो अंग्रेजियत लोगों में आने लग गई। ऐश आराम की प्रवृत्ति लोगों में आने लग गई। ईश्वर भगवान को लोग भूलने लग गए। धीरे-धीरे तब उन्होंने देख लिया कि हमारा आधिपत्य अब धीरे-धीरे जमने लग गया, लोगों को लोभी और लालची बना दिया, आदतें जब लोगों की खराब कर दिया फिर वह हुकूमत करने लग गए। और इस तरह से पूरे देश में अधिकार प्राप्त कर लिया। लोग कहते थे अंग्रेजों का सूरज जहां से निकलता है और जहां तक अस्त होता है वहां तक उनका राज्य रहेगा।
*अच्छी आवाज को कोई दबा नहीं सकता है*
अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्र सेनानियों ने अभियान शुरू किया। उस समय पर इनको अपने दरवाजे पर लोग खड़ा नहीं होने देते थे। कहते थे कि तुम गांधी टोपी लगा कर के हमारे घर के सामने नहीं आओगे, नहीं तो साहब नाराज हो जाएगा, हम को फांसी दे देगा, सजा दे देगा। इतना आतंक उन्होंने फैला रखा था। लेकिन जो आवाज होती है वह कभी दबती नहीं है। अच्छी आवाज कोई दबा नहीं सकता है और फिर परिणाम यह हुआ एक दिन उनको देश छोड़कर के जाना पड़ा, तब देश आजाद हुआ।
*जब तक लोगों का खानपान, चालचलन सही नहीं होगा तब तक खुशहाली नहीं आ सकती*
अब जो लोग उन्ही अंग्रेजीयत में फंसे हुए थे, ज्यादातर लोग वहीं आ गए। आदत खानपान की धीरे-धीरे बिगड़ती गई, धीरे-धीरे उनके चाल-चलन खराब होते गए। वही देश को खोखला करने और लोगों के सामने अपनी भावनाएं नहीं रख पाए और आज यह हालत हो गई। आपको इस चीज को समझने की जरूरत है। जब तक विचार नहीं बदले जाएंगे, भावनाएं नहीं बदली जाएंगी, नैतिक शिक्षा नहीं लायी जाएगी, खानपान लोगों का दुरुस्त नहीं किया जाएगा तब तक खुशहाली नहीं आ सकती है।
-बाबा उमाकान्त जी महाराज*
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