जयगुरुदेव परमार्थ कमाने की विधी– 28.
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
जो लोग पूरे संसारी होते हैं उनके मन में धन, स्त्री, पुत्र और अपने मान बड़ाई की मुख्यता रहती है।
इस युग का हाल देखकर कहा जाता है कि इस प्रकार के लोग अधिकतर हैं और उनके मन में भय और प्यार सच्चे प्रभु का नहीं है।
अधिकतर लोगों के मन में इस बात का पूरा पूरा विश्वास भी नहीं है कि इस रचना का कोई सच्चा (सतगुरु) और महाप्रभु विद्यमान हैं, फिर भय और प्रीति कैसे हो।
ये लोग थोड़ी सी विद्या रटकर, नास्तिकों के वाणी या वचन सुन अथवा पढ़कर बहुत शीघ्र उसे स्वीकार कर लेते हैं और धोखा भी खाते हैं।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*1* सच्चे परमार्थ को प्राप्त करने के लिए दो बातें आवश्यक हैें। एक बाहर से चाल चलन और व्यवहार का नेक और ठीक होना और दूसरा सच्चे सतगुरु और महाप्रभु के भेद को लेकर उससे मिलने की युक्ति जानकर नित्य अपने घर में अभ्यास करना अर्थात निज धाम की ओर नित्य प्रति चलना और मार्ग तैयार करते जाना।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*2* जब तक कि बाहर का चाल चलन और व्यवहार ठीक न होगा, मन में थोड़ी बहुत निर्मलता ना होगी, सच्चे प्रभु को थोड़ा बहुत प्यार और खोज पैदा न होगा तब तक सुरत शब्द योग का अन्तर मुख अभ्यास (जिसके अतिरिक्त और कोई युक्ति प्रभु से मिलने की नहीं है) ठीक से नहीं बन पायेगा।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*3* किसी किसी व्यक्ति की तो यह दशा है कि जैसा कि उनको स्थानों का भेद मिला है जब वे अभ्यास में बैठते हैं तो उसकी झलक दिखलाई दे जाए, तो चाहते हैं कि वह बराबर उनके सामने खड़ी या स्थिर रहें।
पहले स्थान की जो ध्वनि उनको सुनाई देती है उनको जैसा कि चाहिए वे सम्मान नही करते इस कारण अभ्यास रूखा और अरूचिकर प्रतीत होताहै।
तीसरे तिल अथवा सहसदल कंवल का दृष्टिगोचर होना और स्थिर होना सरल बात नहीं है । क्योंकि यह स्थान बैराट स्वरूप और ब्रह्म के हैं। इतने शीघ्र इन स्थानों को देखना और स्थिर रहना कठिन है।
किन्तु कभी कभी उनके स्वरूप अथवा झलक दिखलाई देना और घण्टे का शब्द सुनाई देना यह भी बड़े भाग्य की बात है। शनैः शनैः शब्द भी स्पष्ट और समीप प्रतीत होता जायेगा और यदा कदा स्थान का स्वरूप भी दिखाई देगा।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*4* प्रेम और प्रतीति के साथ अभ्यास करते रहना उचित है।
विचार करते रहना चाहिए कि संतमत के अभ्यास का तात्पर्य यह है कि मन और सुरत जो पिण्ड में बंधे हुए हैं ब्रह्माण्ड की ओर, और फिर उसके पार चढ़ कर पहुंचे।
यदि कोई ध्यान में अपने मन और सुरत को प्रथम अथवा द्वितीय स्थान पर जमावे और थोड़ी देर तक स्थिर रखे तो उसे चाहे कुछ दिखाई दे अथवा नहीं, सिमटाव और चढ़ाई का रस तो उसे अवश्य ही प्राप्त हो जायेगा।
इसी भांति जो ध्यान और भजन के समय अपने मन और सुरत को मोड़ देगा और जहां से ध्वनि आ रही है वहां धीरे धीरे पहुंचावेगा तो उसे भजन का आनन्द अवश्य आवेगा।
अतएव उचित है कि ध्यान और भजन के समय संसार के विचार छोड़कर अपने मन और सुरत को प्रथम स्थान पर स्थिर करें। यदि वहां से उतर आवें तो पुनः उन्हें वहां पहुंचावे और स्थिर करें।
इसी प्रकार बारम्बार करें तो थोड़ा बहुत शब्द भी सुनाई देगा और रूप भी दिखाई देगा। सिमटाव और चढ़ाई का जो आनन्द है वह भी अवश्य मिलेगा।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*5* किन्तु इन सब कार्यों के पूर्व कुछ विरह और प्रेम की अधिक आवश्यकता होती है।
यदि अभ्यास के समय मन वश में न आवें तो उचित है कि किसी महापुरुष की वाणी लेकर उसमें से प्रेेम अंग के शब्दों को लेकर जिसका कि हृदय पर अधिक प्रभाव होता हो ध्यान से पढ़कर भजन में बैठे तो मन की दशा कुछ परिवर्तित होगी और भजन भी कुछ ठीक प्रकार से बन पड़ेगा।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*6* कभी कभी अपने मन को इस प्रकार समझाना कि जब वह संसार के कार्य करता है तो परमार्थ का विचार नहीं करता तो जब वह परमार्थ का कार्य करता है तो संसार के कार्यो का क्यों विचार करता है।
जब तक वह सच्चे प्रभु के चरणों में प्रार्थना भी करता रहे जिससे कि मन निर्मल और निश्चल होकर भजन में लगे।
विचार करना चाहिए कि भजन और ध्यान के समय संसार के विचारों को मन में उठाने से सच्चे प्रभु का अत्यन्त अपमान और निरादर होता है।
यदि कोई अपने पिता अथवा अधिकारी के सामने जाकर उनकी और न देखे न सुने और दूसरे से बातचीत करने लगे तो वे कितने अप्रसन्न होंगे। उसी प्रकार प्रभु भी प्रसन्न नहीं होता। इसी कारण अभ्यास में रस नहीं आता।
अतएव यह उचित है कि यदि अधिक न बन सके तो थोड़ा ही अभ्यास करे किन्तु जहां तक सम्भव हो ठीकसे ध्यान के साथ करे।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*7* यदि कभी भजन या ध्यान के समय शरीर में कुछ शिथिलता प्रतीत होने लगे तो उठकर दो चार पग टहले और फिर बैठ कर अभ्यास करें।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*8* सुरत शब्द मार्ग से अभिप्राय यह है कि जीवात्मा को बाहर से उसका रुख फेरकर शब्द को ध्वनि में जो प्रति क्षण, घट घट में हो रही है, लगावें और उसको सुनें तथा ऊपर को चढ़ावें अर्थात जिस स्थान से ध्वनि आ रही है वहां पहुंचावें।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
सतगुरु अपनी दया से सर्वदा जीव की सम्हाल करते रहते हैं और चाहते हैं कि सब सेवक उनके चरणों में मुख्य प्रीति और प्रतीति करें पर यह मन नहीं चाहता कि जीव को ऐसी अवस्था प्राप्त हो।
वह भोगों की ओर खींचता है और अपने आदेश के अन्तर्गत जीवों को चलाना चाहता है।
अतएव जीवों को चाहिए कि मन की घात से बचकर सतगुरु के चरणों में लगे रहे और उसके जाल में न पड़े।
नीचे गुरु मुख और मनमुख के लक्षणों का थोड़ा सा वर्णन लिखा जाता है कि जिसके अनुसार जीवों को अपनी देखरेख करते हुए चलना चाहिए।
*1* गुरु मुख प्रत्येक के साथ सत्य व्यवहार करता है और बुराई की बातों से बचता है।
किसी को धोखा नहीं देता और जो कार्य करता है वह सतगुरु के निमित्त और उनकी दया के बल पर करता है।
मनमुख चतुराई और कपट व्यवहार करता है। अपने स्वार्थ के लिये ओंरों के साथ विश्वासघात करता है। अपनी बुद्धि और चतुराई पर निर्भर रहता है और अपने आप को प्रकट करता है।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*2* गुरुमुख इन्द्रिय और मन को रोकता है चित्त से दीन रहता है। तान के वचन को सहन करता है और शिक्षाप्रद बातों को ध्यान से सुनता है। वह अपना सम्मान नहीं चाहता है।
मनमुख मन और इन्द्रियों का दमन उसे अच्छा नहीं लगता, किसी से दबना अथवा उसके आदेश का पालन करना नहीं चाहता। दूसरे की प्रशंसा को सहन नही करता।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*3* गुरुमुख किसी पर हठपूर्वकर बल नहीं देता। सबकी स्वेच्छानुसार सेवा करने को तत्पर रहता है, ओरों का उपकार करना चाहता है। अपनी पूजा और प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं रखता। सतगुरु का स्मरण रखता और उनके चरणों में लीन रहता है।
मनमुख दूसरों से आदेश का पालन कराता है और सेवा लेता है। वह अपना मान चाहता है। बिना प्रयोजन किसी से प्रीति नहीं रखता। प्रसन्नता से अपनी पूजा और प्रतिष्ठा कराता है। सतगुरु के चरणों में लवलीन नहीं रहता।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*4* गुरुमुख दीनता मे बर्तता है। यदि कोई इसकी निन्दा निरादर अथवा अपमान करता है तो दुखी नहीं होता, अपितु उसमें अपने लिए भलाई समझता है।
मनमुख निन्दा और अपमान से डरता है। अपने निरादर से अप्रसन्न होता और अपना सम्मान चाहता है।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*5* गुरुमुख सेवा में कभी आलस्य नहीं करता और कभी बेकार नहीं बैठना चाहता।
मनमुख शरीर का सुख चाहता है और सेवा में आलस्य करता है।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*6* गुरुमुख दीनता और साधारण वेशभूषा में रहता है। जो सामग्री मिल जाती है रूखा सूखा अथवा मोटा झोटा उसी में निर्वाह करने को तत्पर रहता है।
मनमुख सदा अच्छे अच्छे पदार्थों को चाहता है, उन्हें प्यार करता है, रूखे सूखे और मोटे पदार्थों से अरूचि रखता है।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*7* गुरुमुख संसारी पदार्थों और उनके जाल में नहीं अटकता। उनके लाभ और हानि में सुखी दुखी नहीं होता। यदि कोई छोटी बात कहता हो तो उसपर क्रोध नहीं करता। सदा जीव के कल्याण और सतगुरु की प्रसन्नता पर दृष्टि रखता है।
मनमुख संसार और उसके पदार्थो का बड़ा विचार रखता है। उनके लाभ हानि में शीघ्र सुखी दुखी होता है। यदि कोई कड़वा बचन कहता है तो शीघ्र क्रोध से पूर्ण हो जाता है। सतगुरु की कृपा और समर्थता का विश्वास और विचार नहीं रखता।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*8* गुरुमुख प्रत्येक बात में सत्यता और निर्मलता रखता है। चित्त में दीन और उदार रहता है। दूसरों से अच्छा व्यवहार रखता और उनकी भलाई चाहता है। आप थोड़े में संतोष करता है दूसरे से लेने की इच्छा नहीं रखता है।
मनमुखी लोभी होता है और दूसरे से लेने को तत्पर रहता है, कुछ देना नहीं चाहता। वह प्रत्येक बात में अपने लाभ का विचार रखता है दूसरे का विचार नहीं करता। तृष्णा बढ़ाता है और निर्मलता नहीं रखता।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*9* गुरुमुख संसारी जीवों से बहुत प्यार नहीं रखता, भोगों की इच्छा और आशा नहीं रखता और सैर तमाशा नहीं चाहता। उसे केवल सतगुरु चरणों की प्राप्ति की इच्छा रहती है और उसी के आनन्द में वह आशक्त रहता है।
मनमुख जो कार्य करता है उसमें कुछ न कुछ अपना कार्य अथवा स्वार्थ देख लेता है क्योंकि बिना स्वार्थ के उससे कोई कार्य नहीं बन सकता। वह सदा अपना आदर और स्तुति चाहता है। संसारी इच्छा उसके ऊपर बलवान रहती है।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*10* गुरुमुख किसी से विरोध नहीं करता, अपितु विरोधी से भी प्यार करता है। कुल परिवार जात पात और बड़े आदमियों से मित्रता का अपने मन में कुछ अहंकार नही लाता। प्रेमी और सच्चा परमार्थी जीवों से अधिक प्यार करता है। सतगुरु के चरणों का प्रेम सदा जगाये रहता है। उनकी दया और कृपा नित्य विशेष प्राप्त करते रहना चाहता है।
मनमुख अधिक कुटुम्ब और मित्र चाहता है। धनवान और शासक वर्ग से अधिक प्रीति रखता और उनकी मित्रता और अपनी जांत पांत का अहंकार रखता है। दिखावे का काम बहुत करना चाहता है और सतगुरु की प्रसन्नता का विचार कम रखता है।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*11* गुरुमुख निर्धनता और कष्ट के समय में नहीं घबराता है। जो विपत्ति आ पड़ती है उसे धैर्य के साथ सहता है। सतगुरु की दया की आशा रखता है और उनके प्रति कृतज्ञता प्रगट करता है।
मनमुख कष्ट से अतिशीघ्र घबराकर पुकारने लगता है। निर्धनता से दुखी होकर इधर उधर आरोप लगाता है।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*12* गुरुमुख सभी कार्य प्रभु की इच्छा पर समर्पण करता है चाहे भला हो अथवा बुरा। वह अपना अहंकार उसमें नहीं लाता। अपनी बात का पक्ष नहीं करता। दूसरों की बातों को ओछा करके नहीं दिखलाता, झगड़े के विषयों में नहीं पड़ता सदा सतगुरु की इच्छा देखा करता है, और उनका गुण गाता हुआ चलता है।
मनमुख सभी कार्यों में अपनत्व रखता है। अपने स्वार्थ और लाभ के लिए झगडे रगड़े से कार्य करता है और अपनी बात के पक्ष में क्रोध करने और लड़ने को तत्पर हो जाता है।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*13* गुरु मुख नई-नई वस्तुओं और बातों में नहीं अटकता, क्योंकि वह देखता है कि उनकी जड़ संसार है। वह अपने गुणों को संसार में छिपाकर चलता है। अपनी प्रशंसा नहीं करना चाहता। जो बात सुनता अथवा देखता है उसमें से सतगुरु से प्रीति और प्रशंसा बढ़ाने वाली बात छांटकर रख लेता है। सदा सतगुरु की, जो सब गुणो के भण्डार हैं महिमा गाते रहता है।
मनमुख नित्य नई-नई वस्तुएं देखना चाहता है और नई नई बातें सुनना चाहता है। हर प्रकार का गुप्त भेद जानना चाहता है, और चतुरता बढ़ाता है। सबको मिलाकर अपनी महिमा कराना चाहता है। अपनी स्तुति में वह बहुत प्रसन्न होता है।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*14* गुरुमुख जो भी परमार्थी कार्य करता है धैर्य के साथ करता है । सदा सतगुरु की दया और कृपा का बल रखता और उनके चरणों में निश्चय पक्का रखता है।
मनमुख प्रत्येक बात में शीघ्रता करता है सभी कार्य शीघ्रता से पूर्ण करना चाहता है। इसी शीघ्रता में सतगुरु की कृपा की आशा और उनके वचन भी भूल जाता है।
●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●
*15* गुरुमुख जो कार्य करता है सतगुरु की प्रसन्नता के लिए उनकी दया और कृपा चाहता है। सर्वत्र गुरु की ही स्तुति करना चाहता है। उन्हीं की ही बढ़ाई चाहता है। और संसारी इच्छा नहीं करता है।
यह सब बातें जो गुरुमुख की चाल में वर्णन की गई हैं वे सतगुरु की कृपा से प्राप्त होगी। जिन पर उनकी कृपा होगी उसी को वे प्रदान करेंगे। जो उनके चरणों की प्रीति और प्रतीति रखते हैं उनको अवश्य ही एकदिन यह अवसर प्राप्त होगा।
एक टिप्पणी भेजें
0 टिप्पणियाँ
Jaigurudev