जयगुरुदेव : सन्तमत में सच्चा निर्माण 29.

जयगुरुदेव 
प्रश्न - सुरत किस तरह लगती है ?

उत्तर- (सुरत शब्द का अभ्यास) नासिका के ऊपर दोनों भौवों के बीच में जो भृकुटी है उस जगह पर तीसरा नेत्र है। दोनों नेत्रों को बन्द करके अन्तरवृत्ति द्वारा जो तीसरे नेत्र में तिल है उसमें सुरत को एकटक जमाना चाहिए, जिस तरह चकोर चन्दा को देखता है। सुख आसन में बैठना चाहिए, आलस्य निद्रा प्रमाद को कम रखना बहुत जरूरी है। भोजन सूक्ष्म कुछ भूख रखकर कम खाना चाहिए। असत्य भाषण कभी नहीं करना चाहिए। 

निन्दा और चुगली से सदा बचना चाहिए। छल, कपट, दंभ, पाखण्ड से सदा दूर रहना चाहिए। जो सदा सब प्राणियों की निन्दा करते और नाना प्रकार के दुर्व्यसनों में फंसे रहते हैं उनसे मेल मिलाप कभी नही करना चाहिए। जिस कदर से अपने आप को श्री प्रभु ने शक्ति प्रदान कर रखी हो उसी के अनुसार सब प्राणियों की भलाई करने में तत्पर रहना चाहिए। प्रयोजन से अधिक वचनों को भी नहीं बोलना चाहिए। 

जो सत्य और मधुरता से पूर्ण हो वही शब्द उच्चारण करना चाहिए। जो सत्य सिंधु अनामी महाप्रभु की भक्ति करते हैं और अन्तर मुख अभ्यास में सदैव लगे रहते हैं उन्हीं प्राणियों से सत्संग व मेल मिलाप करना चाहिए। भृकुटी में सुरत जमाने के साथ साथ दाहिने कान में अनहद शब्द सुनने का भी अभ्यास करना चाहिए।


✡ सन्तमत में सच्चा निर्माण

अनेकों जन्मों के महान संचित पुण्य से कभी सन्त सतगुरु की प्राप्ति होती है। जब वे दयालु हो सत्य सिन्धु अनामी महाप्रभु का भेद देते हैं जिसका श्रवण मनन निधिध्यासन करने से साधक भवसागर से पार हो जाता है। सच्चे प्रीतम को पाकर सच्चिदानंद स्वरूप हो जाता है। यह जीव भवसागर में कैसे आया और पुनः कैसे अमर लोक को जायेगा? 

जब यह जगत कुछ भी नहीं था तब केवल सत्य सिन्धु अनामी महाप्रभु ही थे। उनके सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं था, उन्होने अपने सत्य संकल्प में अगम लोक की रचना करके अगम रूप धारण किया। अगम से अलख लोक की रचना करके अलख रूप धारण किया, अलख रूप से सत्यलोक की रचना करके सत्य पुरुष का रूप धारण किया। फिर सत्य से सोहं लोक की रचना करके सोहं पुरुष का रूप धारण किया।

प्रश्न - जब यह जगत कुछ नहीं था तब क्या था? 
उत्तर- सृष्टि के पहले सत्य पुरुष सत्य करतार अनामी महाप्रभु परम दयाल ही थे।

प्रश्न - सर्गुण ब्रह्म किसे कहते हैं?
उत्तर- जो माया के गुणों को धारण करके संसार का कार्य करता है उसे सर्गुण ब्रह्म या माया सम्मिलित ब्रह्म या पारब्रह्म कहते हैं।

प्रश्न - निर्गुण ब्रह्म किसे कहते हैं?
उत्तर- जो अलख निर्गुण साकार निराकार दोनों से परे साक्षी का भी जो साक्षी है प्रकाशक का भी जो प्रकाशक है, व्यापक में व्यापक है, अंतर्यामी का भी जो अन्तरयामी है, नियामक और नियन्ता को भी नियम में चलाने वाला है, हिरण्य गर्भ विराट मूल प्रकृति को भी नियम में बांधने वाला है। आद्या महाशक्ति व अलख निर्गुण निरंजन निराकार ज्योतिस्वरूप जो ब्रह्म है उसको शासन में चलाने वाला है वह ब्रह्म ध्यान और आराधना करने योग्य है।

✡  जो ब्रह्म को भी उत्पन्न करने वाला है वही ब्रह्म रूप अद्वितीय सनातन परमात्मा ध्यान करने योग्य है।
✡  जो विष्णु अन्तरयामी रूप से समस्त विश्व रूप में व्यापक और समस्त विश्व के पोषक उन विष्णु में जो भी अन्तरयामी रूप से व्यापक और पोषक है वही विष्णु का भी जो विष्णु है वही परम ब्रह्म परमात्मा भजन करने योग्य है।

✡  जो रुद्र समस्त शिव को संहार करने वाला है रुलाने वाला है वही रुद्र स्वरूप पारब्रह्म परमात्मा जो कि रुद्रों का रुद्र है वह भजन करने योग्य है।
✡  जो शिव समस्त शिव को कल्याण का देने वाला है उस शिव को भी जो कल्याण देने वाला है जो कि शिव का भी शिव है वहीं परम ब्रह्म परमात्मा भजन करने योग्य है।

✡  जो इन्द्र तीनों लोकों का शासन करता है उस इन्द्र पर भी शासन करने वाला जो इन्द्र है वही इन्द्र स्वरुप परब्रह्म भजन करने योग्य है।
✡  जो समस्त पापियों और पुण्यात्माओं के लिए सुख-दुःख नरक आदि का विधान करता है उस यम को भी जो अपने विधान में चलाने वाला है वही परम ब्रह्म स्वरुप परमात्मा भजन करने योग्य है।

✡  जो चन्द्र का भी चन्द्र है, जो सूर्यों को भी ज्योति प्रदान करने वाला सूर्य है वही परम स्वरुप परमात्मा भजन करने योग्य है।
✡  जो विष का भी विष और अमृत का भी अमृत है अर्थात् अमृत में भी अमृतत्व जिससे है वही परम स्वरुप परमात्मा भजन करने योग्य है।

✡  जो शेष समस्त विश्व को धारण करने वाला है उस शेष को भी जो धारण करने वाला है वह शेष स्वरुप परमात्मा भजन करने योग्य है।
✡  पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश और महातत्व आदि जिसके आधार पर अवलम्बित हैं जो सर्गुण निर्गुण दोनों से परे है और दोनों का साक्षी प्रेरक और प्रकाशक है वही सच्चिदानंद परम स्वरुप परमात्मा भजन करने योग्य है।

✡  जो कामधेनु का भी कामधेनु है, कल्पतरु का भी कल्पतरु है वरदाताओं का भी वरदाता है दानवीरों में जो शिरोमणि है वही अद्वितीय परम परमात्मा भजन करने योग्य है।
✡  जो अनन्त शतकोटि चन्द्रमा के समान शीतल है जो अनन्त शतकोटि सूर्यों के समान प्रकाशवान है जो अनन्त शतकोटि कामधेनु के समान सुन्दर है वही सच्चिदानंद परम ब्रह्म परमात्मा भजन करने योग्य है।

प्रश्न- सतगुरु किसे कहते हैं?
उत्तर- जो हद बेहद सुन्न महासुन्न सर्गुण व निर्गुण को जानता है उसे सतगुरु कहते हैं।

✡  जो क्षर अक्षर निःअक्षर व पांच ब्रह्म व पांच निर्गुण के भेद को जानता है उसे सतगुरु कहते हैं।
✡  जो तुरिया और तुरियातीत से परे सत्य सिन्धु अनामी की भक्ति करता है उसे सतगुरु कहते हैं।

✡  जो अपनी शरण में आने वाले प्राणियों के समस्त संशय ग्रन्थि को छेदन करके अद्वितीय सनातन तत्व का प्रकाश करते हैं उन्हें सतगुरु कहते हैं।
✡  बिना प्रश्न किये ही जो नाना प्रकार के कुतर्कों को छिन्न भिन्न कर देते हैं वे सतगुरु सनातन तत्व का प्रकाश करते हैं उन्हें सतगुरु कहते हैं।

✡  जिसके समीप पहुंचने के पहले समस्त विकल्प मिट जाते हैं उन्हें सतगुरु कहते हैं।
✡  जो अपने मधुर अमृतवचनों से अज्ञानान्धकार को दूर कर देते हैं विविध ताप की पीड़ाओं को हर लेते हैं चिन्मय सनातन ब्रह्म ज्योति को जगा देते हैं उन्हें सतगुरु कहते हैं।


प्रश्न- दयाल भगवान किसे कहते है? 
उत्तर- जो उत्पत्ति प्रलय पालन आदि का कार्य नहीं करता है, सब जीवों पर दया करके मोक्ष करने के लिए लालायित रहता है उसका जीवन सदा सच्चिदानंद से पूर्ण रहता है।

प्रश्न- सिन्धु कितने प्रकार के हैं।
उत्तर- सिन्धु दो प्रकार के हैं।
एक काल सिन्धु एक दयाल सिन्धु
भेद- काल सिन्धु से जीव कभी मुक्त नहीं होता। और दयाल सिन्धु से जीव सदा सर्वदा के लिए मुक्त होकर निर्वाणानन्द से पूर्ण हो जाता है इसलिए उपासना दयाल सिन्ध की वांछनीय है।

10 प्रश्न- हद बेहद सुन्न, महासुन्न क्षर अक्षर, निःअक्षर निःअक्षरातीत पिण्ड ब्रह्माण्ड क्या है?
उत्तर- (हद, पिण्ड) हद का वास पिण्ड में और बेहद का वास ब्रह्माण्ड में है। सुन्न अक्षर धाम और महासुन्न निःअक्षर पद में क्षर नाशवान माया कहलाती है। अक्षर अविनाशी आत्मा को कहते हैं। निःअक्षर परब्रह्म परमात्मा को कहते हैं। और निःअक्षरातीत सतपुरुष सत्कारतार अनामी महाप्रभु को कहते हैं।

11 प्रश्न- किस पद की भक्ति करने से काल खा जाता है और किस पद की भक्ति करने से जीवन मुक्त हो जाता है।
उत्तर- हद से सुन्न सर्गुण ब्रह्म की भक्ति करने से काल खा जाता है निःअक्षरातीत स्वरुप सतकरतार अनामी महाप्रभु की भक्ति करने से परम दयाल पद में वह जीवन चला जाता है फिर जन्म मृत्यु के बन्धन को कभी नहीं प्राप्त होता है।

प्रश्न- जीवात्मा का क्या स्वरुप है ?
उत्तर- सच्चिदानंद स्वरुप परब्रह्म परमात्मा की यह सनातन कला है इसलिए यह स्वयं अजर अमर अविनाशी नित्य मुक्त स्वरुप शुद्ध बोध रूप सच्चिदानंद स्वरुप है।

प्रश्न- माया किसे कहते हैं?
उत्तर- वह स्वयं जड़ होकर परमात्मा की चेतन कला जीवन की सत्ता पाकर सब जीवन को मोहन देकर बांध देती है यही उसका स्वरुप है।

प्रश्न- ईश्वर किसे कहते हैं?
उत्तर- जो एक है अद्वितीय है जो न बाल न युवा है न वृद्ध है न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है न गर्भ में आकर जन्म लेता है, न मृत्यु को प्राप्त होता है जैसा पहले था वैसा अब भी है और भविष्य में भी वैसा ही रहेगा। अजर अमर अविनाशी नित्य मुक्त रूप शुद्ध बोध रूप अकह अनीम अनाम अरूप शास्वत सच्चिदानंद स्वरूप है।

प्रश्न- जप और अजपा की गति कहां तक है?
उत्तर- हद और बेहद तक जप और अजपा की गति है। हद और बेहद के परे सत्त पद में न जप है न अजपा है। 

प्रश्न- योगी किसे कहते हैं?
उत्तर- सहसदल कमल में जो निरंजन पद तक कमाई करते हैं उन्हें योगी कहते हैं।

प्रश्न- योगेश्वर किसे कहते हैं?
उत्तर- अक्षर निःअक्षर पद तक कमाई करने वाले को योगेश्वर कहते हैं।

प्रश्न- सन्त किसे कहते हैं?
उत्तर- जो अक्षर निःअक्षर से परे, सुन्न महासुन्न से परे हद बेहद से परे, सर्गुण निर्गुण से परे सतपद का भेद जानकर सतपुरुष सतकरतार अनामी महाप्रभु परम दयाल की भक्ति करते हैं उन्हें सन्त कहते हैं।

प्रश्न- भक्ति के कितने भेद हैं?
उत्तर- भक्ति तेरह प्रकार की है। नौ प्रकार नवधा भक्ति और दसवीं अविरल भक्ति जिसे विशुद्ध भक्ति कहते हैं। और ग्यारवी भेद भक्ति और बारहवी अभेद भक्ति और तेरहवी अनपावनी भक्ति । इस भक्ति के भेद को जाने बिना जो भक्ति करता है उसे काल खा जाता है।

प्रश्न- कौन कौन से मुकाम पर कौन कौन से नाद होते हैं?
उत्तर- सहसदल कमल पर घंटा नाद, बंकनाल में शंख ध्वनि, त्रिकुटी में नगाड़े की ध्वनि, परवाज ढोल। दसवें द्वार स्थान में मृदंग की ध्वनि, किंगरी, सारंगी सितार की ध्वनि। भवंर गुफा स्थान में बंशी की ध्वनि। मुकाम सत्यलोक में छःराग और छत्तीस रागिनी व दसों प्रकार के नाद बजते रहते हैं।

✡  लीलाओं का वर्णन

एक अद्भुत दृश्य ऊपरी मण्डलों में नित्य ही हुआ करता है उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है सभी सीन तो बदलते रहते हैं लेकिन साधक को सुरत शब्द के अभ्यास में जबकि सुरत आसमान में चढ़ती है, हमेशा ही नजर आया करता है। वह क्या है। नीले, पीेले, सूर्ख, सब्ज, सफेद रंग के सूक्ष्म बिन्दु जिस तरह बालुका के कण होते हैं बिजली के समान दमकते हुए झिलमिल झिलमिल प्रकाश करते हुए नजर आते हैं। पुष्पों के हार व पुष्प आसमान से बरसते हुए नजर आते हैं यह घटना अक्सर ही होती रहती है। 

विविध प्रकार की मूर्ति विविध प्रकार की पुष्पों से सजी हुई जिसके किरीट मुकुट मण्डल पुष्पों के ही बने हुए होते हैं आसमान में झलका करती है और अपनी मधुर छवि से साधक के मन को आकृष्ट किया करती है। कभी कभी आसमान से कतार के कतार सूर्य उगे हुए नजर आते हैं। विशेष तन्मयता हो जाने पर सूरज की फर्श भी जमीन पर बिछी हुई नजर आती है। कभी कभी सुन्दर बगीचे भी नजर आते हैं जिसमें वृक्षों की डाल साख साख में जिस तरह से अंगूर के गुच्छे लटकते हैं उसी तरह सूरज चांद सितारों के गुच्छे लटकते हुए नजर आते हैं । 

दरअसल बात तो यह है कि बहुत अर्से से कितने युग और कितने कल्प बीत गए कि यह जीव परम पुरुष परमात्मा से बिछुड़ कर इस काल के देश में जब से आया तब से असह दुःख ही उठाते बीते। किन्तु जब सन्त सतगुरु की दया हुई तब शहंशाह बनकर अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के स्वामी निःअक्षरातीत स्वरुप अनामी महाप्रभु के धाम की यात्रा किया तब सारे दुःख काफूर हो गये। उन करूणामय प्रभु ने अपनी योग माया को इस जीव के स्वागत के लिये भेजा जो कि इस प्रकार के अनहद को बजाती है। 

छः राग छत्तीस रागिनी को सुनाती है। विविध प्रकार के खेल तमाशों को दिखलाती हुई जीव रूपी शाहंशाह को प्रसन्न करते हुई सर्वेश्वर भगवान श्री राम पुरुषोत्तम पुरुष के सन्मुख ले जाती है जो कि आनन्द के समुद्र हैं। इन्हीं को अनामी महाप्रभु कहते हैं। यही जन्म और मृत्यु से रहित हैं। यही अविनाशी महाप्रभु वर्णन करने योग्य हैं। जीवात्मा इन्हीं की सच्ची अंश है। इन्हीं के लोक से काल के देश में आई है। इस अपने सच्चे प्रीतम के पास पहुंचकर जन्म मृत्यु के बन्धन से सदा के लिए मुक्त हो जाती है। निर्वाणानन्द से पूर्ण हो जाती है।

जयगुरुदेव
शेष क्रमशः अगली पोस्ट 30. में..


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Parmarthi vachan sangrah 
santmat me sachcha nirman

सतगुरु का पत्र

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