जब गुरु नामदान देता है तो जीव के बेशुमार कर्म कट जाते हैं। पर जो लेना देना है वह नहीं कटता।
नाम ही धन है रतन है। शब्द धुन को रोज सुनो। मन और सुरत को खूब एकाग्र करके धुन में लगाओ फिर जब रस आयेगा। यहां के गानों जिन्हें तुम मधुर कहते हो कोई रस नहीं। जो गाने ऊपर हो रहे हैं उनमें कितनी मिठास है कितनी ठंडक है वह वर्णन में नही आ सकता। जब भी फुरसत मिले सुमिरन ध्यान भजन जरूर करना।
*स्वामी जी ! हमने नामदान लिया है अब हमारी रहनी कैसी होनी चाहिए ?*
उत्तर- सबसे पहली बात यह है कि शाकाहारी रहो और ऐसा कोई नशा मत करो जिससें बुद्धि पागल हो जाए ।
दूसरी बात भजन ध्यान सुमिरन जैसा बताया गया है उसे रोज-रोज करो नागा ना होने पावे। जीवन नेक पाक होना चाहिए।
छुआछूत का विशेष ध्यान रखो। जुबान मीठी होनी चाहिए। बड़ों का सम्मान और छोटों से प्यार करो ।
कम बोलो और फालतू बहस किसी से मत करो ।
अधिक बक-बक बोलने से अधिक शक्ति अनावश्यक क्षीण होती है ।
निंदा किसी की मत करो निंदा करने से दूसरों के पाप कर्म अपने ऊपर आते हैं ।
अपराध कोई करे और फल दूसरा भोगे यही ईश्वरीय विधान है। इस बात को अच्छी तरह समझ लो ।
दूसरों की आंखों की पुतलियों को देखकर बातें करने से उसके कर्म तुम्हारे ऊपर और तुम्हारे अच्छे कर्म उसके ऊपर चले जाएंगे। अर्थात कर्मों का आदान-प्रदान होता है चाहे अच्छे हो अथवा बुरे हो । क्रियमाण कर्म जो रोज खाने पीने से, मिलने जुलने से अथवा अन्य कार्यकलापों से सत्संगी के ऊपर आते हैं उन्हें सुमिरन, ध्यान, भजन करके रोज साफ करना चाहिए । नहीं तो भजन में रूखे फीके रहोगे ।
अपने अंतर में रोज झाड़ू लगाकर सफाई करनी है ।
पहले इतना करो सत्संग में बराबर हाजिरी देते रहो तो आध्यात्मिक यात्रा में जल्दी सफलता प्राप्त होगी।
*स्वामी जी ! भजन में तरक्की नहीं होती क्या करें ?*
उत्तर- तरक्की नहीं होती तो इसमें तुम्हारे मन का कसूर है। सत्संग बार बार मिलना चाहिए और मन की भागदौड़ कम होनी चाहिए। सांसारिक वस्तुओं के लिए अनावश्यक तृष्णा होगी और भजन को गैर जरूरी समझोगे तो मन नहीं लगेगा। भजन ध्यान सुमिरन को बेकार समझकर करते हो। इससे भजन कभी भी नहीं बनेगा।
एकाग्रता का होना जरूरी है। एकाग्रता आने पर आत्मा शरीर को छोड़ना शुरु कर देती है और शरीर सुन्न होने लगता है। फिर शब्द सुनाई जब देगा तो मन उसकी ओर आकर्षित होगा, क्योंकि शब्द में से अमृत चूता रहता है।
मन जब उसको पियेगा फिर चुप हो जायेगा और जीवात्मा का साथ देने लगेगा। इसके बाद जीवात्मा शरीर के नौ द्वारों को छोड़कर ऊपर चली जाती है। शरीर से निकलने के बाद मन और आत्मा का पहला कदम स्वर्ग में पड़ता है जहाँ कोई कष्ट नहीं होता है आनन्द ही आनन्द होता है।
एक बार जब साधना चल पड़ती है तो गुरु साधक को अन्तर में मार्ग दर्शाते हुए ईश्वर, ब्रहम, पारब्रहम, सबका दर्शन कराते हुए सत्तलोक पहुंचा देते हैं, जो सारी जीवात्माओं का अपना असली घर है।
सत्तलोक से ही उतरकर सारी जीवात्मायें नीचे उतर कर आयीं थीं।
*स्वामी जी ! मन मानता नहीं है नाचता रहता है क्या करूं ?*
उत्तर- दोनों आंखों के पीछे तीसरा तिल है | वहां बहुत तेज प्रकाश है | जो यहां सूरज निकलता है उसका प्रकाश कुछ भी नहीं है | तीसरे तल पर सत्य पुरुष की धार आती है | जब तुम मन को चित्त को वहां टिकाओगे तब मन का घाट बदलेगा | मन की निरख परख तुमको ही करनी है कि पहले वह क्या था और अब क्या है |
उसमें कितना विवेक आया, कितना ज्ञान आया, कितनी बुराइयां छूटी, कितनी दुनिया से उदासीनता हुई |
गुरु इधर मिलते हैं मानव शरीर में गुरु उधर भी मिलते हैं तीसरे तिल में | वहां गुरु का प्रकाशमय रूप होता है जो अति सुंदर है | बातें भी होती हैं | इसीलिए ध्यान भजन के द्वारा तीसरे तिल पर पहुंचो| फिर मन की भागदौड़ नाचना कूदना सब समाप्त हो जाएगा|
*स्वामीजी! परमार्थी को किस प्रकार का भोजन खाना चाहिए और किस भोजन से बचाव रखना चाहिए ?*
उत्तर- साधू व सच्चे परमार्थी को इन बातों का ख्याल रखना चाहिए-
1 मालिक के नाम पर पवित्र भोजन जो मिले वह खावें।
2 मरते वक्त का पुण्य किया हुआ अन्न या मनसा हुआ भोजन या देवी भैरों वगैरा की पूजा का नहीं खाना चाहिए। अगर ऐसा भोजन या अन्न वगैरा कहीं से आ जाये तो गरीबों या मुंहताजो को या कोढी कंगलों को देना चाहिए या सतगुरु जिसको मुनासिब समझें अपनी दया से दे दें।
*स्वामी जी! शब्द धुन क्या चीज है ?*
उत्तर- शब्द धुन कहते हैं आवाज को, वाणी को, नाम को, आकाश वाणी को, कलमा को आयतों को, आसमानी आवाज को। परमात्मा के अनन्त शब्द भण्डार से निकली हुई लहर को शब्द धुन कहते हैं।
यह शब्द धुन हर इन्सान के अन्दर मौजूद है।
यह इंसान की बनाई हुई चीज नहीँ है बल्कि यह कुदरती तौर पर हर घर में बज रही है।
इसको न हम बदल सकते हैं, न बड़ा सकते हैं और न ही घटा सकते हैं।
इसी शब्द धुन को ईसामसीह ने word कहा।
उन्होंने कहा कि "Word is God and God is Word" अर्थात नाम यानि आवाज ही परमात्मा है और परमात्मा ही नाम है।
इस लहर यानि शब्द धुन के एक सिरे पर परमात्मा है और दूसरे सिरे पर जीवात्मा है।
इस प्रकार यह लहर इन दोनों को जोड़ने में कड़ी का काम करती है।
इस लहर द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के जीवन और उसके सम्पूर्ण अस्तित्व की सम्हाल हो रही है।
सन्त मत की साधना द्वारा इस शब्द धुन को पकड़ा जाता है फिर परमात्मा का साक्षात्कार होता है।
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