*जयगुरुदेव : साधक विघन निरुपण 9*

*स्वामी जी की कलम से*

*39. सतसंग का महत्व*

साधकों, तुमको गुरु का सतसंग जरूर से जरूर करना होगा, जितना भी वक्त मिले। क्योंकि सतसंग से यह लाभ होगा कि जब तुम साधना में बैठोगे और सुरत अपने निशाने पर आवेगी और नाम के साथ लगकर ऊपर चढ़ना प्रारम्भ करेगी उस वक्त विकारी अंग सुरत को गिरा न सकेंगे। 

जब विकारी अंगोें का असर सुरत के ऊपर से दूर हो तब नाम नशा सुरत को लक्ष्य पर जमा देगा ताकि सुरत की चाल आगे को होगी।



*40. गुरु का काम*

सुरत तीसरे तिल पर पहुंचे और आत्मरूप दर्पण में दर्शन हो उस वक्त सुरत को ज्ञान होता है कि मैं महापुरुष का अंश हूं। यही मेरा सच्चा आत्मरूप है। 

तीसरे तिल पर जो धार है वह अनामी पद से चलकर टिकी है। इसी तीसरे तिल की धार को सुरतों ने छोड़ दिया है। जब से यह धार छोड़ा है तभी से सुरतें अपने वास्तविक सुख को खो चुकी है। 

संत सतगुरु इसी अनादि धार से जोड़ने के लिए बिछुड़ी हुई सुरतों को मनुष्य शरीर में उपदेश करते हैं। जो सुरतें अपना सम्बन्ध सतगुरु से कर लेती हैं और उनके उपदेश को सुन लेती हैं उनका तो अनादि धार जो तीसरे तिल में है उससे जुड़ना हो जाता है। और जो सुरत अपना सम्बन्ध संत सतगुरु से नहीं कर पाती है उसका आदि धाम से जुड़ना नहीं होता है। बल्कि मनुष्य शरीर समाप्त करके इस मृत्युलोक में चौरासी खान में चली जाती है।

साधकों अथवा गैरसाधको को यह समझाया जाता है कि इस "आत्म फिलास्फी" को अपने जीवन में समझने की कोशिश करनी चाहिए।  मनुष्य अपनी आत्मा अर्थात् सुरत को जगाने के हेतु इस मनुष्य चोले में अपना कार्य आत्म कल्याण का किया तो समझो कि सुरत ने सच्चा कार्य इस मनुष्य देह में आकर कर लिया, वरना जीवन जीवन न होगा।



*41. आत्मदर्शन*

जब सुरत दोनों आंखें बंद करके तीसरे तिल में आत्मदर्शन अपने सच्चे स्वरूप का करती है तो उसे एक प्रकार की जाग्रति हो जाती है। उस शीशे में देखती है कि मैं इसी स्वरूप की हूं और उसी आइनें से दूसरों को भी शकलें नजर आती हैं। यही उस शीशे में मालूम होता है कि कौन क्या करता है। 


साधकों, जब यह गति प्राप्त होती है तो उसे एक प्रकार का अहंकार प्रगट हो जाता है। ऐसी अवस्था में यदि साधक कुछ किसी के बारें में कहता है तो उसका कहा हुआ वचन सत्य हो जाता है। 


स्त्री पुरुषों!  जो तुम साधन गुरु का दिया हुआ करते हो और अन्त में उनकी शक्ति प्राप्त करते हो तो तुमको यह विचार करना होगा कि मैं अपनी जमा की हुई पूंजी बरबाद न कर दूं।  सुरत की चाल रुक जाती है कि तुम अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हो। सुरत उसी तीसरे तिल में होकर देखती है। स्वर्ग भी नजर आते हैं। बैकुण्ठ धाम भी नजर आते हैं जो वहां की रचना है, सुन्दर आनन्द की वह भी नजर आती है, वह वहां सब दिखाई देती है।

 
यह साधना गुरु के पास रहकर चन्द दिन में पूरी हो जाती है। गुरु दिव्य देशों के मार्ग को भली भांति जानता है। वह तुम्हें अपना रास्ता बताकर तुम्हें पहुंचा देता है।


मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का आपा तुमने ठान लिया है।इसी आपे के द्वारा तुम अपने आप को नही पहचान पाते हो। आपा गुरु के चरणों में रख दो, और उससे दिव्य अगोचर, दिव्य दृष्टि मांगो जिसके द्वारा परमात्मा का दर्शन होता है।


जब सुरत सहंसदल कंवल में पहुंचती है तो बहुत बड़ी शक्ति प्रगट हो जाती है। शक्ति तो तीसरे तिल में भी प्राप्त होती है। परन्तु सहंसदल कंवल की शक्ति वह शक्ति है जिससे साधू भूमण्डल पर सब कुछ दे देता है यदि उसकी इच्छा आ जावे।


इसी अवस्था को पाकर साधू दुनिया में रहते हुये आप भी दे दिया करते हैं। इस गति का पहुंचा हुआ आगे नही जा सकेगा। जिस तरह हमें धन पाकर घमण्ड आ जाता है, जन को पाकर घमण्ड आ जाता है, राज्य को पाकर राज्यमद आ जाता है, विद्या मद आ जाता है, इसी तरह उस शक्ति को पाकर मद आ जाता है। अपनी ताकत अपनी जगह प्रगट होती है तो उसका मद आना स्वभाविक है।


सन्तमत के अनुयाइयों को जो सुरत शब्द की साधना में लगे हैं उन्हें होशियारी से रहना चाहिए कि कहीं किसी को आर्शीवाद अथवा श्राप न देने लगें। साधन वालों को असर नही होता है, परन्तु पूंजी में से खर्च करेंगे तो अवश्य कम होगी। 


जिन साधको को अन्तर प्रकाश या शब्द मिल रहा है उन्हें अपनी जबान पर ताला लगा लेना होगा। साधकों तुम्हें मालूम नही है कि उसका क्या असर तुम्हारी साधना पर हो जाता है।



*42. साधना नित्य ही करना चाहिए*


जो रास्ता सुरत शब्द का मिल गया है उसको प्रीति और विश्वास के साथ, हर रोज कमाई करना चाहिए क्योंकि तुम्हारी साधना में तरक्की होगी। किसी कारण यदि तुमने साधन मे कमी कर दी तो अभ्यास में तुमने जो पाया है, उसमें कमी अवश्य होगी जिससे मालूम होगा कि गुरु की दया अब काम नही करती है। 

सुरत शब्द के साधकों को साधन करते समय घबराना नही चाहिए क्योंकि शब्द तुम्हारी सफाई चाहता है तुम साफ हो जाओगे।

तुम्हारे अन्दर झीनी माया व्याप रही है जिसकी तुम्हे खबर नही है। वही झीनी माया तुम्हारे अन्दर एक प्रकार की फुरना पैदा करती रहती है। हर प्रकार से साधको की गल्ती रहती है। साधन खुद नही करते हैं और इसी से सतसंग में रूखे फीके बैठते हैं। 

गुरु उसी वक्त तुम्हारा जिम्मा लेगा जब तुम साधन करोगे। बहुत लोग सुरत  शब्द के मार्ग को ले लेते हैं और समय अभाव में साधन करते हैं बाकि और साधन मन इन्द्रियों के होते हैं इस वजह से साधन में तरक्की नही होती है। 

जो साधक गुरु का उपदेश लेकर डांवाडोल रहते हैं वे वेचारे जीव कोई भी चीज सन्तो की नही पा सकते हैं। सन्त देने के लिए आते हैं और जीव उन्हे नही लेता है। जीवों की प्रीति सन्तो के चरणों में होगी तब कुछ उनसे नामदान मिलेगा और किसी जतन से सन्तों का धन नही पा सकते हैें। जब सन्त दीन देखते हैं तब नाम देकर बन्धन से मुक्त कर डालते हैं।

जयगुरुदेव
शेष क्रमशः अगली पोस्ट  no. 10  में...
https://www.amratvani.com/2019/12/Amratvani.com.html  
Parmarthi vachan sangrah
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2 टिप्पणियाँ

  1. Sadhna agar sahi se ki jaye to kitne dino me anubhav prapt honge.

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    1. Jigyasa k liye dhanyawad,
      man ko akagra karne par pratidin 1 ghante dhyan bhajan karne par 1 mahine k andar anubhav hone lagta he,
      Pujya mharajji apne satsang me sunate hen.
      Lekin man ko sadhna me ekagra karne se pehle niymit satsang, seva bhi jaruri h.
      Jaigurudev 🙏

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Jaigurudev