जयगुरुदेव : तुलसी वाणी 35.

✡ जयगुरुदेव : परमार्थी वचन संग्रह 

✡  बचनामृतों का सार

१- संसार को स्वप्नवत जानो-
उमा कहाँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजन जगत सब अपना।

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२- अति हिम्मत रखो-
धीरज धर्म मित्र अरू नारी, आपत काल परखिये चारी।

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३- अखण्ड प्रफुल्लित रहो दुख में भी-
फिरत सनेह मगन सुख अपने, हर्ष विषाद शोक नहिं सपने।

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४- परमात्मा का स्मरण करो जितना बन सके-
देह धरे का यह फल भाई। भजिय राम सब काम बिहाई।

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५- किसी को दुख मत दो बने तो सुख दो-
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।

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६- सभी पर प्रेम रक्खो-
सरल स्वभाव सबहि सन प्रीती, सम शीतल नहिं त्यागहि नीती ।।

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७- नूतन बालवत स्वभाव रक्खो-
सेवक सुत पितु मातु भरोसे, रहे असोच बने प्रभु पोसे।

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८- मर्यादानुसार चलो-
नीति निपुण सोई परम सयाना, श्रुति सिद्धान्त नीक जेहि जाना।

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६- अखण्ड प्रयास करो गंगा प्रवाहवत । आलसी मत बनो-
करो अखण्ड परम पुरूषारथ

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१०-जिसमें तुमको नीचा देखना पड़े ऐसा काम मत करो-
गुरू पितु स्वामी सिख पाले। चलत कुमग पग परत न खाले।

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यह रहस्य रघुनाथ कर वेग न जाने कोय।
जाने ते रघुपति कृपा सपनेहु मोह न होय ।।

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✡  महात्म्य

मति अनुरूप कथा मैं भाषी। यद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी ।। 
यह नहि कहिय शठहिं हठशीलहिं। जो मन लाय न सुन हरि लीलहिं। 
कहिय न लोभिहि क्रोधिहि कामिहि। जो न भजहिं सचराचर स्वामिहिं।
द्विज द्रोहिहिं न सुनाइय कबहूँ। सुरपति सरिस होय नृप जबहूँ। 

मन क्रम बचन जनित अध जाई। सुनहि जो कथा श्रवण मन लाई। 
प्रणत कल्पतरू करूणा पुन्जा। उपजै प्रीति राम पद कन्जा। 
मन कामना सिद्धि नर पावा। जो यह कथा कपट तजि गावा। 
जे सकाम नर सुनहि जे गावहि। सुख सम्पति नाना विधि आवहिं।

सुर दुर्लभ सुख करि जग माही। अन्तकाल रघुपति पुर जाहीं। 
सुनहिं विमुक्त विरत अरू विषई। लहहिं भक्ति गति सम्पति नितई। 
राम उपासक जे जग माहीं। यहि राम प्रिय तिनके कछु नाहीं।

मुनि दुर्लभ हरि भक्ति नर पावहि बिनहिं प्रयास ।
जो यह कथा निरन्तर सुनहिं मानि मन विश्वास ।।

हरिहर पद रति मति न कुतरकी। तिन कहुँ मधुर कथा रघुवर की। 
राम भगति भूषित जिय जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी।
गुरू पद प्रीति नीति रति जोई। द्विज सेवक अधिकारी तेई। 
ताकहं यह विशेष सुखदाई। जाहि प्राण प्रिय श्री रघुराई। 

जो यह कथा सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता। 
होइहहिं राम चरण अनुरागी। कलि मल रहित सुमंगल भागी। 
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भव निधि तरहीं।

राम चरण रजि जो चहँ अथवा पद निर्वान। 
भाव सहित सो यह कथा करें श्रवण पुट पान। 
कामिहि नारि पियारि जिमि लोभिय प्रिय जिमि दाम। 
तिमि रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहुँ मोहि राम।


जयगुरुदेव 
शेष क्रमशः अगली पोस्ट 36. में..


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Parmarthi vachan sangrah 
tulsi vani



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