जयगुरुदेव : तुलसी वाणी 34.

जयगुरुदेव  :  परमार्थी वचन संग्रह

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✰   तुलसी वाणी : ज्ञान की महिमा


झूठौ सत्य न जाहि बिनु जानै। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने ।। 
जेहि जाने जग जाय हेराई। जागे यथा स्वप्न भ्रम जाई ।।.
निज भ्रम नहिं समुझहिं अज्ञानी। प्रभु पर दोष धरहिं जड़ प्रानी।। 
विषय करन सुर जीव समेता। सकल एक ते एक सचेता ।।

उमा राम विषयक अस मोहा। नभ तम धूम धुरि जिमि सोहा ।। 
भगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू। माया धीश ज्ञान गुण धामू ।। 
जासु सत्यता ते जड़ गया। भास सत्य इव मोह सहाया ।।
सब कर परम प्रकाशयक जोई। राम अनादि अवधपति सोई ।।

रजत सीप मह भास जिमि, यथा भानु करि बारि। 
यद्यपि मृषा तिहुँ काल सोई, भ्रम न सके कोउ टारि ।।

यहि विधि जग हरि आश्रित रहई। यद्यपि असत्य देत दुख अहई ।।
ज्यों सपने सिर काटै कोई। बिन जागे दुख दूर न होई ।।
जासु कृपा अस भ्रम मिट जाई। गिरजा सोई कृपाल रघुराई ।।
राम सच्चिदानन्द दिनेशा। नहिं तहं मोह निशा लवलेशा ।।

ज्ञान अखण्ड एक सीताबर। माया वश्य जीव सचराचर ।।
ज्ञान बिराग योग विज्ञाना। ये सब पुरूष सुनहु हरियाना ।।
पर वस जीव स्वबस भगवन्ता। जीव अनेक एक श्रीकन्ता ।।
हर्ष बिषाद ज्ञान अज्ञाना। जीव धर्म अहिमित अभिमाना ।।

पुरूष प्रताप प्रबल सब भाँती। अबला अबल सहज जग जाती ।। 
जो सब के रह ज्ञान एक रस। ईश्वर जीवहि भेद कहो कस ।। 
सुरसरि मिले सो पावन जैसे। ईश अनीशहि अंतर तैसे ।। 
सरिता जल जलनिधि महं जाई। होय अचल जिव जिमि हरि पाई ।। 

हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम में प्रकट होय भगवाना ।।
सुरसरि जल कृत वारूणि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना ।।
अगुण अरूप अलख अज जोई। भक्त प्रेम वश सगुण सो होई ।।
जो गुण रहित सगुण सो कैसे। जल हिम उपज बिलग नहिं जैसे ।।

एक दारू गत देखिय येकू। पावक युग सम ब्रह्म विवेकू ।।
उपजहिं जासु अंश ते नाना। शम्भु विरंचि विष्णु भगवाना ।।
नट इव चरित्र करत विधि नाना। सदा स्वतन्त्र राम भगवाना ।।

यथा अनेकन वेष धरि, नृत्य करै नट कोय।
जोइ जोइ भाव देखावई आप होय नहिं सोय ।।

चिदानन्द मय देह तुम्हारी। विगत विकार ज्ञान अधिकारी ।।
जग पेखन तुम देखन हारे। विधि हरि शम्भु नचावन हारे ।।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहिं तुम्हहिं होई जाई ।।
तुम्हरी कृपा तुम्हहिं रघुनन्दन। जानत भक्त भक्ति उन चंदन ।।

नर तनु धरेउ सत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा ।।
राम देखि मुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे ।।
तुम जो कहहु करहु सब सांचा। जस काछिय तस चाहिय नाचा ।।
योग वियोग भोग भल मन्दा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा ।।

जन्म मरण जहं लगि जग जालू। संपति विपति कर्म अरू कालू ।।
धरणि धाम धन पुर परिवारू। स्वर्ग नर्क जहं लगि व्यवहारू ।।
देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं। माया कृत परमारथ नाही ।।

सपने होय भिखारि नृप, रंक नाक पति होय । 
जाग हानि न लाभ कछु, तिमि प्रपंच जिय जोय ।।

मोह निशा सब सोवनहारा। देखहि स्वप्न अनेक प्रकारा ।। 
यहि जग यामनि जागहिं योगी। परमार्थी प्रपंच वियोगी ।। 
जानिय तबहिं जीव जग जागा। जब सब विषय विलास विरागा ।। 
होय विवेक मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरण अनुरागा ।। 

सखा परम परमारथ रूपा। अवगत अलख अनादि अनूपा ।। 
मुनिवर जतन करत जेहि लागी। भूप राज तजि होय विरागी ।। 
रमा विलास राम अनुरागी। तजत वमन ईव जन बड़ भागी ।। 
रामहि केवल प्रेम पियारा। जानि लेहु जो जानन हारा ।। 

जाने बिनु न होय परतीती। बिनु परतीत होय नहिं प्रीती ।।
प्रीति बिना नहि भक्ति दृढ़ाई। जिमि खगेश जल की चिकनाई ।।

उमा राम गुण गूढ़, पण्डित मुनि पावहिं बिरति । 
पावहिं मोह, बिमूढ़ जे हरि भक्ति न धर्म रति ।।

गूढउ तत्वं न साध दुरावहिं। आरत अधिकारी जहं पावहिं ।।
तारा विकल देखि रघुराया। दीन्ह ज्ञान हर लीन्हीं माया ।।
क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम शरीरा ।।
प्रगट सो तनु तव आगे सोवा। जीव नीत्य तुम केहि लगि रोवा ।।

बहु प्रकार तेहि ज्ञान सिखावा। देह जनित अभिमान छुड़ावा ।।
तब लगि बसत जीव मन माहीं। होय अचल जिव जिमि हरि पाही।।

माया सम्भव सकल भ्रम, अब ब्यापहि तोहिं। 
जानेसु ब्रह्म अनादि अज सगुण गुणाकर जोहि ।।


✰  वशिष्ठ भरत

सुनहु भरथ भावी प्रबल, बिलखि कहेहु मुनि नाथ।
हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ ।। 
अस विचार केहिं दीजिय दोषू। व्यर्थ काहि पर कीजिय रोषू ।।
तत विचार करहु मन माहीं। शोच योग्य दशरथ नृप नाही ।।

सोचिय विप्र जो वेद विहीना। तजि निज धर्म विषय लवलीना ।। 
सोचिय नृपति जो नीति न जाना। जेहिं न प्रजा प्राण समाना ।। 
सोचिय वैश्य कृपण धनवानू। जो न अतिथि शिव भक्त सुजानू ।। 
ममता तरूण तिमिर अधियारी। राग द्वेष उलूक सुखकारी ।। 

सोचिय शुद्र विप्र अपमानी। मुखर मान प्रिय ज्ञान गुमानी ।। 
सोचिय पुनि पति बंचक नारी। कुटिल कलह प्रिय इच्छाचारी ।। 
सोचिय बटु निज ब्रत परिहरई। जो नहि गुरू आयसु अनुसरई ।।

सोचिय गृही जो मोह बश करई धर्म पथ त्याग।
सोचिय यती प्रपंच रत, बिगत बिधेय बिराग ।। 

बैसानख सोई सोचन योगू। तप बिहाय जेहि भावै भोगू ।।
सोचय पिसुन अकारण क्रोधी। जननि जनक गुरू बंधु विरोधी ।। 
सब विधि सोचिय पर अपकारी। निज तनु पोषक निर्दय भारी ।।
सोचनीय सबहीं विधि सोई। जो न छांड़ि कुल हरिजन होई ।।
सोचनीय नहिं कौशल राऊ। भुवन चरित दस प्रगट प्रभाऊ ।।



✰    श्रीराम लक्ष्मण गीता

एक बार प्रभु सुख आसीना। लक्ष्मण बचन कहेउ छल हीना ।।
सुर नर मुनि सचराचर सांई। मैं पूछौं निज प्रभु की नाई ।।
मोहि समुझाय कहौ सोई देवा। सब तजि करों चरण रज सेवा ।।
कहहु ज्ञान विराग अरू माया। कहहु सो भक्ति करहु जेहि दाया ।।

ईश्वर जीवहि भेद प्रभु सकल कहहु समुझाय ।
जाते होय चरण रति, शोक मोह भ्रम जाय ।।

थोरे महं सब कहीँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चितालाई ।।
मैं अरू मोर तोर ते माया। जेहि बश कीन्हें जीव निकाया ।।
गो गोचर जहं लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई ।।
तेहि कर भेद सुरहु तुम सोऊ। विद्या अपर अविद्या दोऊ ।।

एक दुष्ट अतिशय दुख रूपा। जा बस जीव परा भव कूपा ।।
एक रचे जग गुण बस जाके। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताके ।।
ज्ञान मान जह एकौ नाहीं। देखत ब्रह्म रूप सब माही ।। 
कहिय तात तो परम बिरागी। तृण सम सिद्धि तीन गुण त्यागी ।।

माया ईश न आपु कहं जानि कहिय सो जीव। 
बन्ध मोझ प्रद सर्व पर, माया प्रेरक सीव ।।

धर्म ते बिरति योग ते ज्ञाना। ज्ञान मोक्ष प्रद वेद बखाना ।।
जासे बेगि द्रवो मैं भाई। मिलई जो भक्ति भक्त सुखदाई ।। 
सो स्वतन्त्र अवलम्ब न आना। तेहि आधीन ज्ञान विज्ञाना ।। 
भक्ति तात अनुपम सुख मूला। मिलई जे सन्त होहि अनुकूला ।। 

भक्ति के साधन कहीं बखानी। सुगम पन्थ मोहि पावहि प्रानी ।। प्रथमहिं विप्र चरण अति प्रीती। निज निज धर्म निरत श्रुति प्रीति ।। 
यहि कर फल पुनि विषय विरागा। तब मम चरण उपज अनुरागा। श्रवणादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं। 

संत चरण पंकज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ।।
मम गुण गावत पुलक शरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा ।।
काम आदि मद दम्भ न जाके । तात निरन्तर बस मैं ताके ।।

बचन कर्म मन मोरि गति मन करै निष्काम। 
तिनके हृदय कमल महं करौं सदा विश्राम ।।



✰  शबरी की भक्ति

शबरी देखि राम गृह आये। मुनि के बचन समुझि जिय भाये।
सरसिज लोचन बाहु विशाला। जटा मुकुट शिर उर बनमाला।
श्याम गौर सुन्दर दोउ भाई। शबरी परी चरण लपटाई।
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।
सादर जल लै चरण पखारे। पुनि सुन्दर आसन बैठारे।

कंद मूल फल सरस अति, दिये राम कह आनि।
प्रेम सहित प्रभू खायऊ, बारहिबार बखानि ।।
पाणि जोर आगे भई ठाढ़ी। प्रभूहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी। 
केहि विधि स्तुति करौ तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़ अति भारी।

अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन महं मै अति मंद गंवारी। 
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानौ एक भक्ति कर नाता। 
जाति पांति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुण चतुराई। 
भक्ति हीन न सोहें कैसे। बिनु जल वारिद देखिय जैसे। 

नवधा भक्ति कहीँ तोहि पाहीं। सावधन सुनु धरू मन माहीं। 
प्रथम भक्ति संतन कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।

गुरू पद पंकज सेवा तीसरी भक्ति अमान। 
चौथी भक्ति मम गुण गण, करइ कपट तजि गान।

मन्त्र जाप मम दृढ़ विश्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा। 
षट दम शील बिरतु बहु कर्मा। निरत निरन्तर सज्जन धर्मा। 
सप्तम सब मोहिं सम जग देखै। मोते संत अधिक कर लेखै।
अष्ठम यथा लाभ सन्तोषा। सपनेहुँ नहिं देखै परदोषा । 

नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय हर्ष न दीना।
नव मंह जिनके एकौ होई। नारि पुरूष सचराचर कोई। 
सो अतिशय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भक्ति दृढ़ तोरे ।

योगी बन्द दुर्लभ गति जोई। तोकहं आज सुलभ भई सोई। 
मम दर्शन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज स्वरूपा ।

सब प्रकार तव भाग बड़, मम चरणन अनुराग । 
तव महिमा जेहि उर बसहिं, तासु परम बड़ भाग ।।


✰  श्री राम गीत

जीवन मुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहु तजि ध्यान। 
जे हरि कथा न करहिं रति, तिनके हृदय पषान ।।

एक बार रघुनाथ बुलाये। गुरू द्विज पुरवासी सब आये।
बैठे गुरू मुनि अरू द्विज सज्जन। बोले बचन भक्त भय भन्जन । 
सुनहु सकल पुरजन मम बानी। कहौ न कछु ममता उर आनी।
नहिं अनिति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई। 

सोई सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुशासन मानै जोई।
जो अनीति कछु भाषी भाई। तौ मोहिं बर्जेहु भय बिसराई। 
बड़े भाग्य मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सद ग्रन्थन गावा। 
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा। पाई न जेहि परलोक संवारा।

सो परत्र दुख पावई, सिर धुनि पछिताय । 
कालहि कर्महि ईश्वरहि, मिथ्या दोष लगाय ।।

यहि तनु कर फल विषय न भाई। स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदाई। 
नर तन पाय विषय मन देहीं। पलटि सुधा ते शठ विष लेहीं। 
ताहि कबहुं भल कहै न कोई। गुंजा गहै पारस मणि खोई। 
आकर चारि लक्ष चौरासी। योनि भ्रमत यह जीव अविनाशी । 

फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म स्वभाव गुन घेरा। 
कबहुंक करि करूणा नर देही। देत ईश बिनु हेतु सनेही। 
नर तन भव बारिध कहं बेरो। सन्मुख मरूत अनुग्रह मेरो। 
कर्णधार सदगुरू दृढ़ नावा। दुर्लभ साध सुलभ करि पावा।

जो नर तरै भव सागरहिं नर समाज अस पाई। 
सो कृत निन्दक मन्द मति, आतमहन गति जाई।



✰  ज्ञान दीपक

औरहु ज्ञान भक्ति कर, भेद सो सुनहु प्रवीन । 
जो सुनि होय राम पद, प्रीति सदा अवछीन ।

सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनै न जाति बखानी। 
ईश्वर अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशी। 
सो मायाबश भये गुसाई। बध्यो कीर मरकट की नाई। 
जड़ चेतनहिं ग्रन्थि परि गई। यद्यपि मृषा छूटत कठिनाई। 

तब ते जीव भयो संसारी। छूटि न ग्रन्थि न होय सुखारी। 
श्रुति पुराण बहु कहेउ उपाई। छुटै न अधिक अधिक अरूझाई। 
जीव हृदय तन मोह विशेषी। ग्रन्थि छुटै किम परैं न देखी। 
अस संयोग ईश जब करई। तबहुँ कदापि सो निरूवरई। 
सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई। जो हरि कृपा हृदय बश आई ।।

जप तप व्रत यम नियम अपारा। जो श्रुति कह शुभ धर्म अचारा।
सोइ तृण हरित चरै जब गाई। भाव वत्स शिशु पाय पेन्हाई।
नोइ निवृत्ति पात्र विश्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा। 
परम धर्म मय पय दुहि भाई। अवटै अनल अकाम बनाई।

तोष मरूत तब छमा जुड़ावै। धृति सम जावन देइ जमावै।
मुदिता मथै विचार मथानी। दम अधार रजु सत्य सुबानी।
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता। विमल विराग सुभग सुपुनीता।

योग अग्नि करि प्रगट तब, कर्म शुभाशुभ नाय ।। 
बुद्धि सिरावै ज्ञान घृत ममता मल जरि जाय ।। 
तब विज्ञान निरूपिणी, बुद्धि विषद घृत पाय ।।
चित्त दिया भरि धरै दृढ़ समाता दिवटि बनाय ।।

तीन अवस्था तीन गुण, तेहि कपास ते काढ़ि ।।
तूल तुरीय संवारि पुनि, बाती करै सुगाढ़ि ।।
यहि विधि लेसइ दीप, तेज राशि विज्ञान मय ।।
जातहिं तासु समीप, जरहि मदादिक शलभ सब ।।

सोहमस्मि इति वृत्ति अखण्डा। दीप सीखा सोई परम प्रचण्डा ।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकाशा। तब भव मूल भेद भ्रम नाशा ।।
प्रबल अविद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटै अपारा ।।
तब सोई बुद्धि पाइ उजियारा। उर गृह बैठि ग्रन्थि निरूवारा ।।

छोरत ग्रन्थि पाव जब कोई। तब यह जीव कृतारथ होई ।।
छोरत ग्रन्थि जानि खगराया। विघ्न अनके करै तब माया।।
रिद्धि सिद्धि प्रेरै बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावै आई ।।
कल बल छल कर जाय समीपा। अंचल बात बुझावै दीपा ।।

होई बुद्धि जो परम सयानी। तिन्ह तन चितवन अनहित जानी ।।
जो तोहि विघ्न बुद्धि नहीं बांधी। तो बहोरि सुर करहि उपाधी ।।
इन्द्रिय द्वारा झरोखा नाना। जहं तहं सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं विषय बयारी। ते हठि देहि कपाट उघारी ।।
जब सो प्रभज्जन उर गृह जाई। तबहिं दीप विज्ञान बुझाई ।।

ग्रन्थि न छूटि मिटा सो प्रकाशा। बुद्धि विकल भई विषय बतासा ।।
इन्द्रिय सुरन्ह न ज्ञान सुहाई। विषय भोग पर प्रीति सदाई ।। 
विषय समीर बुद्धि कृत भोरी। तेहि विधि दीप को वारि बहोरी ।।

तब फिर जीव विविध विधि, पावैं संसृति क्लेश ।
हरि माया अति दुस्तर, तरि न जाय विहर्गेश ।।
कहत कठिन समुझत कठिन, साधन कठिन विवेक ।
होई धुणाक्षर न्याय जो पुनि प्रत्यूह अनेक ।।

ज्ञान कर पन्थ कृपाल की धारा। परत खगेश होय नहिं वारा। 
जो र्निविघ्न पन्थ निर्वरई। सो कैवल्य परम पद लहई। 
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद। सन्त पुराण निगम आगम बद। 
राम भगति सोई मुक्ति गोसाई। अन इच्छित आवै बरियाई।
 
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भांति कोऊ करै उपाई। 
तथा मोक्ष सुख सुनु खगराई। रहि न सकै हरि भक्ति बिहाई । 
अस बिचारि हरि भक्ति सयाने। मुक्ति निरादर भक्ति लुभाने।


✰  सप्त प्रश्न

पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ। जो कृपाल मोहिं ऊपर भाऊ।
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रश्न मम कहहु बखानी। 
प्रथमहि कहहु नाथ मति धीरा। सब ते दुर्लभ कवल शरीरा।
बड़ा दुख कवन कवन सुख भारी। सो संक्षेपहिं कहहुँ विचारी। 

संत असंत मर्म तुम जानहु। तिन्ह कर सहज स्वभाव बखानहु। 
कवन पुण्य श्रुति विदित विशाला। कहहु कौन अध परम कराला। मानस रोग कहहुँ समझाई। तुम सर्वज्ञ कृपा अधिकाई। 
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संक्षेप कहहूँ यह नीती। 

नर तनु सम नहिं कवनिउं देही। जीव चराचर याचत जेही। 
नर्क स्वर्ग अपवर्ग निसेनी। ज्ञान विराग भक्ति सुख देनी। 
सो तनु धरि हरि भजहि न जे नर। होहिं विषय रत मन्द मन्द तर। 
कांच किरच बदले ते लेही। कर ते डारि परस मणि देहीं।

नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख कछु नाहीं। 
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज स्वभाव खगराया। 
संत सहहिं दुख पर हित लागी। पर दुख हेतु असंत अभागी। 
भूरज तरू सम संत कृपाला। पर हित सह नित विपति विशाला। 

सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाय विपति सहि मरई। 
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूषक इव सुन उरगारी। 
पर सम्पदा बिनशि नसाहीं। जिमि कृषि हति हिम उपल बिलाहीं। 
दुष्ट उदय जग अनरथ हेतू। यथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू। 

संत उदय संतत सुखकारी। विश्व सुखद जिमि इन्दु तमारी। 
परम धर्म श्रुति विदित अहिंसा। पर निन्दा सम अघ न गिरीसा। 
हरि गुरू निन्दक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तनु सोई। 
द्विज निन्दक बहु नर्क भोग करि। जग जन्मइ वायस शरीर धरि । 

सुर श्रुति निन्दक जे अभिमानी। रौरव नर्क परहिं ते प्रानी। 
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निशा प्रिय ज्ञान भानु गत। 
सबकी निन्दा जे जड़ करहीं। ते चमगादड़ होइ अवतरहीं। 
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्हते दुख पावहिं सब लोगा। 

मोह सकल व्याधन कर मूला। जेहिते पुनि उपजहि बहु शूला। 
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा। 
प्रीत करहिं जो तीनउ भाई। उपजै सन्निपात दुखदाई। 
विषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब शूल नाम को जाना।
 
ममता दादु कण्डु हरपाई। हर्ष विषाद गहरू बहुताई। 
पर सुख देखि जरनि सोइ छाई। दुष्ट दुष्टता मन कुटिलाई। 
अहंकार अति दुखद डमरूआ। दंम्भ कपट मद मान नहरूआ । 
तृष्णा उदर वृद्धि अति भारी । त्रिबिध ईषणा तरून तिजारी। 

युग विधि ज्वर मत्सर अविवेका। कहं लगि कहौं कुरोग अनेका। 
एक व्याधि वश नर मरहिं, ये असाध्य बहु व्याधि ।

पीड़हि सन्तत जीव कहं सो किमि लहहि समाधि ।।
नेम धर्म आचार तप, ज्ञान यज्ञ तप दान।
भेषज पुनि कोटिन नहीं, रोग जाहि हरियान ।।
यहि विधि सकल जीव जग रोगी। शोक हर्ष भय प्रीत वियोगी ।।

मानस रोग कछुक मैं गाये। हैं सबके लखि बिरलन्ह पाये ।। 
जाने ते छीजहिं कछु पापी। नाश न पावहिं जन परितापी ।। 
विषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहुँ हृदय का नर बापुरे ।। 
राम कृपा नासहिं सब रोगा। जो यहि भांति बनै संयोगा ।। 

सदगुरू वैद्य बचन विश्वासा। संयम यह न विष की आसा ।। 
रघुपति भक्ति संजीवन मूरी। अनुपान श्रद्धा अति रूरी ।। 
यहि विधि भलेहि कुरोग नशाहीं। नहि तो कोटि यतन नहिं जाहीं ।। जानिय तब मन विरूज गोसाई। जब उर बल विराग अधिकाई ।।

सुमति कृपा बाढ़े नित नई। विषय आस दुर्बलता गई ।। 
विमल ज्ञान जल पाई अन्हाई। तब रह राम भक्ति उर छाई ।। 
शिव अज शुक सनकादिक नारद । जे मुनि ब्रह्म विचार विशारद ।। 
सब कर मत खगनायक येहा। करिय राम पद पंकज नेहा ।। 

श्रुति पुराण सब ग्रन्थ कहाहीं। रघुपति भक्ति बिना सुख नाहीं ।। 
कमठ पीठ बरू जामहि बारा। बन्ध्या सुत बरू काहुहि मारा ।। 
फूलहि नभ बरू बहु विधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ।। तृषा जाय बरू मृग जल पाना। बरू जामहि शश शीश विषाना ।।

 अन्धकार बरू रविहि नशावै। राम विमुख सुख जीव न पावै ।।
हिम ते अनल प्रगट बरू होई। राम बिमुख सुख पाव न कोई ।। 

बारि मथे घृत होय बरू सिकता ते बरू तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिय, यह सिद्धान्त अपेल ।। 
मसकहि करहि विरंज प्रभु। अजहिं मसक ते हीन ।। 
अस विचार तजि संशय। रामहिं भजहिं प्रवीन ।।
 
जयगुरुदेव 
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Parmarthi vachan sangrah 
tulsi vani




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