जयगुरुदेव : तुलसी वाणी 31.

✴ जयगुरुदेव- तुलसी वाणी 

✴ मंगलाचरण

बन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकर रुपिणम्। 
यमाश्रितो हि वक्रोपि चन्द्रा सर्वत्रवंघते।।

जेहि सुमिरत सिद्धि होय गणनायक करिवर बदन। 
करहु अनुग्रह सोय बुद्धि राशि शुभगुण सदन।।
मूक होहिं बाचाल, पंगु चढ़हिं गिरिवर गहन। 
जासु क्रपा सुदयाल द्रवौ सकल कलिमल दहन।।

नील सरोरुह श्याम, तरुण-अरुण वारिज-नयन। 
करहु सो मम उर धाम, सदा क्षीर सागर-शयन।। 
कुन्द-इन्दु सब देह, उमा रमण करुणा अयन। 
जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन-मयन।।


✴  गुरु वन्दना

बन्दौ गुरु पद कन्ज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि। 
महा मोह तम पुन्ज, जासु वचन रविकर निकर।।

बन्दौ गुरु पद पदुम परागा। 
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
अमिय मूरिमय चूरण चारू। 
शमन सकल भवरूज परिवारू।।

सुकृत शम्भु तनु विमल विभूति। 
मंजुल-मंगल-मोद प्रसूती।।
जन मन मंजु मुकुर मल हरणी। 
किये तिलक गुण-गण वश करणी।।

श्री गुरु पद नख मणि गण ज्योति। 
सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती।।
दलन मोह तम सो सूप्रकासू। 
बड़े भाग्य उर आवहिं जासू।।

उधरहिं विमल विलोचन हिय के । 
मिटहि दोष दुख भव रजनी के।।
सूझहिं राम चरित मणि माणिक। 
गुप्त प्रगट जहं जो जेहि खानिक।।

यथा सुअजन अंज दृग साधक सिद्ध सुजान। 
कौतुक देखहिं शैल वन, भूतल भूरि निधान।।

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। 
नयन अमिअ दृग दोष विभंजन।।
तेहि कर विमल विवेक विमोचन। 
वरणौ रामचरित भव मोचन।।


✴  विनय

बन्दौ प्रथम भरत के चरणा। 
जासु नेम व्रत जाहि न वरणा।
राम चरण पंकज मन जासू। 
लुब्ध मधुप इव तजै न पासू।।

बन्दो लक्ष्मण पद जल जाता, 
शीतल सुभग भक्त सुख दाता।।
रघुपति कीरति विमल पताका। 
दण्ड समान भयो यश जाका।।

शेष सहस्त्र शीश जग कारण। 
जो अवतरेउ भूमि भय टारन।।
सदा सो सानुकूल रह मो पर।
कृपा सिन्धु सौमित्र गुणाकर।।

रिपुसूदन पद कमल नमामी।
शूर सुशील भरत अनुगामी।।
महाबीर बिनवौ हनुमाना। 
राम जासु यश आप बखाना।।

बन्दौ पवन कुमार, खल बन पावक ज्ञान धन। 
जासु हृदय आगार, बसहिं राम शर चाप धर।।

रघुपति चरण उपासक जेते। 
खग मृग सुर नर असुर समेते।।
बन्दौ पद सरोज सब केरे। 
जे बिनु काम राम के चेरे।।

शुक सनकादि आदि मुनि नारद। 
जे मुनिवर विज्ञान विशारद।।
बन्दौ सबहि धरणि धर शीशा। 
करहुं कृपा जन जानि मुनीशा।।

जनक सुता जन जननि जानकी। 
अतिशय प्रिय करुना निधान की।।
ताके सुता पद कमल मनाऊं। 
जासु कृपा निर्मल गति पाऊं।।

बन्दो राम नाम रधुबर को। 
हेतु कृशानु भानु हिमकर को।।
आकर चाल लाख चैरासी। 
जाति जीव जल थल नभ वासी।।

सियाराम मय सब जग जानी। 
करहु प्रणाम जोर जुग पानी।।
जानि कृपा करी किंकर मोहू। 
सब मिलि करहु छांड़ि छल छोहू।।

निज बुद्धि बल भरोस मोहि नाहीं। 
ताते विनय करूं सब पाहीं।।
करन चहौ रघुपति गुण गाहा। 
लघु मति मोरि चरित अवगाहा।।

कहं रघुपति के चरित अपारा। 
कहं मति मोरि निरत संसारा।।
ज्यों बालक कह तोतरि बाता। 
सुनहि मुदित मन पितु अरु माता।।

छमिहहि सज्जन मोरि ठिठाई, 
सुनिहहिं बाल बचन मन लाई।

अर्थ न धर्म न काम रुचि, गति न चहौ निर्वान । 
जन्म जन्म रति राम पद, यह वरदान न आन।।

गुरु आगमन सुना रघुनाथा। 
द्वार आई नायउ पद माथा।
सादर अर्ध्य देई घर आने। 
षोडश भांति पूजि सनमाने।।

सेवक सदन स्वामि आगमनू। 
मंगल मूल अमंगल दमनू।।
प्रभुता तजि प्रभु करिय गोसाईं। 
सेवक लकहैं स्वामी सेवकाई।।

मोरे सबई एक तुम स्वामी। 
दीनबन्धु उर अन्तरयामी।।
नाथ कुशल पद पंकज देखे। 
भयऊं भाग्य भाजन जन लेखे।।

सिर धरि आयसु करब तुम्हारा। 
परम धर्म यह नाथ हमारा।।
जब ते प्रभु पद पदम निहारे। 
मिटे दुसह दुख दीप हमारे।।

जे गुरु पद अम्बुज अनुरागी। 
ते लोकहु बेदहु बड़ भागी।।
मैं जानऊं निज नाथ स्वभाऊ। 
अपराधिहु पर कोह न काऊ।।

चितवत पंथ रहेउं दिन राती। 
अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती।।
नाथ सकल साधन मैं हीना। 
कीन्हीं कृपा जानि जन दीना।।

यह वर मागहुं कृपा निकेता।
बसहु हृदय सिय अनुज समेता।।
सीता राम चरण रति मोरे। 
अनुदिन बढ़ै अगुग्रह तोरे।।

नाथ जीव सब माया मोहा। 
सो निस्तरै तुम्हारेहि छोहा।।
मंगल भवन अमंगल हारी। 
द्रवउं सो दशरथ अजरि बिहारी।।

मंत्र महामणि विषय व्याल के।
मेटत कठिन कुअंक भाल के।।
कबहुं नयन मम शीतल ताता। 
हुइहैं निरखि श्याम मृदु गाता।।

राम विमुख सम्पति प्रभुताई। 
जाय रही पाई बिनु पाई।।
दीन दयाल विरद सम्भारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी।।

तुमहिं देखि शीतल भई छाती। 
पुनि मोकहुं सोई दिन सोई राती।।
सुनु सर्वज्ञ कृपा सुख सिन्धो। 
दीन दया कर आरत बन्धो।।

मरती बार नाथ मोहि बाली। 
गयऊं तुम्हारे कोछे घाली।।
अशरण शरण विरद सम्भारी। 
मोहि जन तजहु भक्त भयहारी।।

मोरे तुम प्रभु गुरु पितु माता। 
जाऊं कहां तजि पद जल जाता।।
तुमहि विचार करहु नर नाहा।
तजि भवन काज मम काहा।।

बालक ज्ञान बुद्धि बल हीना। 
राखहिं शरण जानि जन दीना।।
नीच टहल गृह की सब करिहौं। 
पद पंकज बिलोकि भव तरिहौं।।

अस कहि चरण परेउ प्रभु पांही।
अब जनि नाथ कहहु गृह जाही।।
असि गरुण निज हृदय विचारी।
मैं रघुवीर भजन अधिकारी।।

शकुनधाम सब भांति अपावन। 
प्रभु मोहि कीन्ह विदित जग पावन।।
अस स्वभाव कहुं सुनेउ न देखौं। 
केहि खगेश रघुपति सम लेखौं।।

शरण गये मोके अधराशी। 
होहिं शुद्ध नमामि अविनाशी।।
मोह जलधि बोहित तुम भयऊ। 
मों कह नाथ विविध सुख दयऊ।।

मोहि सन होय न प्रत्युपकारा।
बन्दौ तब पद बारहिं बारा।।
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ। 
तव प्रसाद मन संशय गयऊ।।

जानेहु सदा मोहि निज किंकर। 
पुनि पुनि उमा कहै बिहंग वर।।
मो सम दीन न दीन हित, तुम समान रघुवीर। 
अस विचार रघुवंश मणि, हरहु विषम भव भीर।।


✴  दुष्टो के लक्षण ✴ 


बहुरि बन्दि खल गन सति भाये। जे बिन काज दाहिने बायें ।।
सुनहु असंतन केर स्वभाऊ। भुलेहु संगति करिअ न काऊ ।।


तिन्हकर संग सदा दुखदाई। जिमि कपिलहि घालै हरहाई ।।
खलन हृदय अति ताप विशेषी। जरही सदा पर सम्पति देखी ।।


जह कहुँ निन्दा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुं परी निधि पाई ।।
काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन ।।


बैर अकारण सब काहू सों। जो करि हित अनहित ताहूं सौं ।।
स्वारथ रत परिवार विरोधी। लम्पट काम क्रोध अति लोभी ।।


मातु पिता गुरू विप्र न मानहि। आपु गये अरू घालहिं आनहिं ।।
करहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा ।।


अवगुण सिन्धु मन्द मति कामी। वेद विदूषक पर धन स्वामी ।।
मानहि मातु पिता नहीं देवा। साधुन सो करवावहि सेवा ।।


जिनके यह आचरण भवानी। ते निश्चर सम जानो प्रानी ।।
बेचहिं वेद धर्म दुहि लेहीं। पिशुन पराय पाप कहिं देहीं।।


कपटी कुटिल कलह प्रिय क्रोधी। वेद विदूषक विश्व विरोधी ।।
लोभी लम्पट लोल लबारा। जे ताकहिं पर धन पर दारा ।।


जो नहिं साधु संग अनुरागे। परमारथ पथ विमुख अभागे ।।
जो न भजहिं हरि नर तन पाई। जिनहिं न हरिहर सुयश सुहाई।।


तजि श्रुति पंथ बाम पथ चलहीं। बचक विरचि बेश जग छलहीं ।।
पर हित हानि लाभ जिन केरे। उजरे हर्ष विषाद बसेरे ।।


हरिहर यश राकेश राहु से। पर अकाज भट सहस बाहु से ।।
जे परदोष लखहिं सह साखी। परहित घृत जिनके मन माखी ।।


पर अकाज लागि तनु परिहरिहीं। जिमि हिम उपल कृषी दल गरहीं।।
बन्दौ खल जस शेष सरोषा। सहस बदन चरणौ पर दोषा।।

बचन बज्र जेहि सदा पियारा। सहस नयन पर दोष निहारा।।
काल काम बस कृष्ण बिमूढ़ा। अति दरिद्र अयशी अति बूढ़ा ।।

सदा रोग बश सन्तत क्रोधी। राम बिमुख हरि सन्त विरोधी ।।
तनु पोषक निन्दक अभिमानी। जीवत शव सम चौदह प्रानी ।।


नर शरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा ।।
करहिं मोह वश नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना ।।


काल रूप तिन कह मैं आता। शुभ अरू अशुभ कर्म फल दाता ।।
जिन हरि कथा सुनी नहि काना। श्रवण रन्ध्र अहि भवन समाना ।।


नयनन सन्त दरश नहि देखा। लोचन मोर पंख कर लेखा ।।
ते शिर कटि तूंवरि सम सूला। जे न नमत हरि गुरू पद तूला ।।


जिन्ह हर भक्ति हृदय नहि आनी। जीवत शव समान ते प्रानी ।।
जो नहि करहि राम गुण गाना। जीह सु दादुर जीह समाना ।।


कुलिश कठोर निठुर सोई छाती। सुनि हरि चरित न जो हरषाती ।।
अज्ञ अकोविद अन्ध अभागी। काई विषय मुकुर मन लागी ।।


लम्पट कपटी कुटिल विशेषी। सपनेहु सन्त सभा नहिं देखी ।।
कहहि ते वेद असम्मत बानी। जिनहि न सूझ लाभ नहि हानी ।।


मुकुर मलिन अरू नयन विहीना। राम रूप देखहि किमि दीना ।।
बातुल भूत विवश मतवारे। ते नहिं बोलहि बचन सम्भारे ।।


जिन्ह कृत महा मोह मद पाना। तिन कर कहा करिय नहिं काना ।।
बायस पालिय अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ।।


हंसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषण भूषण धारी ।।
खल परिहास होई हित मोरा। काक कहहि कल केठ कठोरा ।।


जे जनमें कलि काल कराला। करतब वायस वेष मराला ।।
चलत कुर्पथ वेद मग छाड़े। कपट कलेवर कलि मल भाड़े ।।


अति खल जे विषयी बक कागा। यहि सर निकट न जाय अभागा ।।
शम्बुक भेक सिवार समाना। इहां न विषय कथा रस नाना ।।

तेहि कारण आवत हिय हारे। कामी काक बलाक विचारे ।।
आवत यहि सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आई न जाई ।।
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम शैल विशाला ।।

दोहा-
काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुख रूप । 
ते किमि जानहिं रघुपतिहि, मूढ़ परे तम कूप ।। 
पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपवाद। 
ते नर पामर पापमय, देह धरे मनुजाद ।।

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जयगुरुदेव
शेष क्रमशः अगली पोस्ट 32. में..


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Parmarthi vachan sangrah 
tulsi vani



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