जयगुरुदेव : तुलसी वाणी 31.
✴ दुष्टो के लक्षण ✴
बहुरि बन्दि खल गन सति भाये। जे बिन काज दाहिने बायें ।।
सुनहु असंतन केर स्वभाऊ। भुलेहु संगति करिअ न काऊ ।।
तिन्हकर संग सदा दुखदाई। जिमि कपिलहि घालै हरहाई ।।
खलन हृदय अति ताप विशेषी। जरही सदा पर सम्पति देखी ।।
जह कहुँ निन्दा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुं परी निधि पाई ।।
काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन ।।
बैर अकारण सब काहू सों। जो करि हित अनहित ताहूं सौं ।।
स्वारथ रत परिवार विरोधी। लम्पट काम क्रोध अति लोभी ।।
मातु पिता गुरू विप्र न मानहि। आपु गये अरू घालहिं आनहिं ।।
करहिं मोह बस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा ।।
अवगुण सिन्धु मन्द मति कामी। वेद विदूषक पर धन स्वामी ।।
मानहि मातु पिता नहीं देवा। साधुन सो करवावहि सेवा ।।
जिनके यह आचरण भवानी। ते निश्चर सम जानो प्रानी ।।
बेचहिं वेद धर्म दुहि लेहीं। पिशुन पराय पाप कहिं देहीं।।
कपटी कुटिल कलह प्रिय क्रोधी। वेद विदूषक विश्व विरोधी ।।
लोभी लम्पट लोल लबारा। जे ताकहिं पर धन पर दारा ।।
जो नहिं साधु संग अनुरागे। परमारथ पथ विमुख अभागे ।।
जो न भजहिं हरि नर तन पाई। जिनहिं न हरिहर सुयश सुहाई।।
तजि श्रुति पंथ बाम पथ चलहीं। बचक विरचि बेश जग छलहीं ।।
पर हित हानि लाभ जिन केरे। उजरे हर्ष विषाद बसेरे ।।
हरिहर यश राकेश राहु से। पर अकाज भट सहस बाहु से ।।
जे परदोष लखहिं सह साखी। परहित घृत जिनके मन माखी ।।
पर अकाज लागि तनु परिहरिहीं। जिमि हिम उपल कृषी दल गरहीं।।
बन्दौ खल जस शेष सरोषा। सहस बदन चरणौ पर दोषा।।
बचन बज्र जेहि सदा पियारा। सहस नयन पर दोष निहारा।।
सदा रोग बश सन्तत क्रोधी। राम बिमुख हरि सन्त विरोधी ।।
तनु पोषक निन्दक अभिमानी। जीवत शव सम चौदह प्रानी ।।
नर शरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा ।।
करहिं मोह वश नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना ।।
काल रूप तिन कह मैं आता। शुभ अरू अशुभ कर्म फल दाता ।।
जिन हरि कथा सुनी नहि काना। श्रवण रन्ध्र अहि भवन समाना ।।
नयनन सन्त दरश नहि देखा। लोचन मोर पंख कर लेखा ।।
ते शिर कटि तूंवरि सम सूला। जे न नमत हरि गुरू पद तूला ।।
जिन्ह हर भक्ति हृदय नहि आनी। जीवत शव समान ते प्रानी ।।
जो नहि करहि राम गुण गाना। जीह सु दादुर जीह समाना ।।
कुलिश कठोर निठुर सोई छाती। सुनि हरि चरित न जो हरषाती ।।
अज्ञ अकोविद अन्ध अभागी। काई विषय मुकुर मन लागी ।।
लम्पट कपटी कुटिल विशेषी। सपनेहु सन्त सभा नहिं देखी ।।
कहहि ते वेद असम्मत बानी। जिनहि न सूझ लाभ नहि हानी ।।
मुकुर मलिन अरू नयन विहीना। राम रूप देखहि किमि दीना ।।
बातुल भूत विवश मतवारे। ते नहिं बोलहि बचन सम्भारे ।।
जिन्ह कृत महा मोह मद पाना। तिन कर कहा करिय नहिं काना ।।
बायस पालिय अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ।।
हंसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषण भूषण धारी ।।
खल परिहास होई हित मोरा। काक कहहि कल केठ कठोरा ।।
जे जनमें कलि काल कराला। करतब वायस वेष मराला ।।
चलत कुर्पथ वेद मग छाड़े। कपट कलेवर कलि मल भाड़े ।।
अति खल जे विषयी बक कागा। यहि सर निकट न जाय अभागा ।।
शम्बुक भेक सिवार समाना। इहां न विषय कथा रस नाना ।।
तेहि कारण आवत हिय हारे। कामी काक बलाक विचारे ।।
आवत यहि सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आई न जाई ।।
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम शैल विशाला ।।
दोहा-
काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुख रूप ।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि, मूढ़ परे तम कूप ।।
पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपवाद।
ते नर पामर पापमय, देह धरे मनुजाद ।।
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काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुख रूप ।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि, मूढ़ परे तम कूप ।।
पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपवाद।
ते नर पामर पापमय, देह धरे मनुजाद ।।
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