प्रश्न: वक़्त के संत महात्मा किसी जीव के कर्म-बंधन कैसे काटते हैं ?


प्रश्न: वक़्त के संत महात्मा किसी जीव के कर्म-बंधन कैसे काटते हैं ?
उत्तर: सिक्ख परंपरा के दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह जी के समय की एक प्रेरणादायी कहानी से इसका समाधान होता है।

एक दफ़ा दशम पातशाही श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी का दरबार सजा हुआ था। कर्म-फल के प्रसंग पर पावन वचन फरमायें जा रहे थे "जिसकी जो प्रारब्ध है उसे वही प्राप्त होता है। कम या अधिक किसी को प्राप्त नहीं होता क्योंकि अपने किये हुये कर्मों का फल तो जीव को भुगतना ही पड़ता है।"
इन वचनों के पश्चात गुरु की मौज उठी कि "जिस किसी को जो वस्तु की आवश्यकता हो वह निःसंकोच होकर माँग सकता है उसे हम आज पूरा करेंगे।"

एक श्रद्धालु ने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की "प्रभु मैं बहुत गरीब हूँ। मेरी तमन्ना है कि मेरे पास बहुत सा धन हो जिससे मेरा गुज़ारा भी चल सके और साधु सन्तों की सेवा भी कर सकूँ।"
उसकी सच्ची भावना को देख श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने शुभ आशीर्वाद दिया कि तुझे लखपति बनाया गया, तत्पश्चात ऐसे ही दूसरे गुरुमुखों ने भी जो-जो मांगा उन्हें वो बख्शीश दी।

उसी सतसंग में एक फकीर शाह राय बुलारूद्दिन भी बैठे थे। उनकी उत्सुकता को देखकर अन्तर्यामी गुरुदेव ने पूछा "राय बुलारूद्दिन! आपको भी यदि कुछ आवश्यकता हो तो नि:सन्देह नि:संकोच होकर कहो?"
उन्होंने हाथ जोड़ कर खड़े हो कर प्रार्थना की "प्रभु मुझे तो किसी भी सांसारिक वस्तु की कामना नहीं है। परन्तु मेरे मन में एक सन्देह उत्पन्न हो गया है? अगर आपकी कृपा हो तो मेरा सन्देह दूर कर दें।

प्रार्थना है कि प्रभु अभी-अभी आपने वचन फरमाये हैं कि प्रारब्ध से कम या अधिक किसी को नहीं मिलता। अपने कर्मों का फल प्रत्येक जीव को भुगतना ही पड़ता है तो मेरे मन में सन्देह हुआ कि अभी जिसे आपने लखपति होने का आशीर्वाद दिया है। जब इसकी तकदीर में नहीं है तो आपने कहां से दे दिये?"

तब गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सेवक द्वारा एक कोरा कागज़ और मोहर वाली स्याही मँगवाई। अपनी अँगूठी की छाप दिखला कर राय बुलारूद्दिन से फरमाया कि "बताओ इस अँगूठी के अक्षर ऊल्टे हैं कि सीधे?"
फकीर ने उत्तर दिया कि "ऊल्टे हैं सच्चे पादशाह।"

फिर गुरु ने स्याही में डुबो कर कोरे कागज़ पर मोहर छाप दी। अब पूछा "बताओ अक्षर ऊल्टे है कि सीधे।"
फकीर ने उत्तर दिया कि "महाराज अब सीधे हो गये हैं।"
वचन हुये "तुम्हारे प्रश्न का तुम्हें उत्तर दे दिया गया है।"
फकीर ने विनय की "भगवन! मेरी समझ में कुछ नहीं आया।"

गुरु गोबिन्द सिंह जी ने फरमाया "जिस प्रकार छाप के अक्षर उल्टे थे, लेकिन स्याही लगा कर छापने पर वह सीधे हो गये हैं। इसी तरह ही जिस जीव के भाग्य उल्टे हों और अगर उसके मस्तक पर संत सतगुरु के चरण कमल की छाप लग जाये तो उसके उल्टे भाग्य भी सीधे हो जाते हैं।"

संत महापुरुषों की शरण में आने से जीव की किस्मत पल्टा खा जाती है। इसलिये जो सौभाग्यशाली जीव संत सतगुरु की चरण शरण में आ जाते हैं, सतगुरु के चरणों को अपने मस्तक पर धारण करते हैं, अपने सभी कार्य उनकी आज्ञा मौज़ अनुसार निष्काम भाव से सेवा करते हैं, सुमिरन,ध्यान और भजन करते हैं, निःसन्देह यहाँ भी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं और कर्म बन्धन से छूट कर, आवागमन के चक्र से आज़ाद हो कर "मालिक" के सच्चे धाम को प्राप्त करते हैं।

संत महापुरुष ने वचन फरमायें हैं कि "नाम" बड़ी ऊँची दौलत है। बड़े ही अहोभाग्य से मिलता है। और जो अहोभाग्य से मिलता है तो इसकी क़दर करना चाहिए। पूर्ण सतगुरु नामदान के दिन से ही हमारी सम्भाल करने लगते हैं सिर्फ हमें उन पर भरोसा बनाये रखना है और बाकी सब उनका काम है।

वक़्त के संत-सतगुरु परम पूज्य "बाबा उमाकान्त जी महाराज" आज की तवाऱीख में वही अहोभाग्य की दौलत "नामदान" हर एक जीवों को बगैर किसी भेदभाव के खुले आम जगह-जगह पर लुटा रहे हैं, बांट रहे हैं। 

" जयगुरुदेव जयगुरुदेव जयगुरुदेव जय जयगुरुदेव

Guru govind singhji


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ