*बहुत से साधक नकली सतलोक में ही रह जाते हैं*

जयगुरुदेव


*माया के लोक में गुरु को भी भूल जाता है साधक*

एक लोक से दूसरे लोक में जाने का सुराख बहुत पतला है। जीवात्मा के निकलने का सुराख सुई के छेद से भी कई गुना छोटा पतला है। लेकिन कहते हैं, जब गुरु की दया हो जाती है तो उसी से हाथी भी निकल जाता, गूंगा भी बोलने लगता, अपंग पहाड़ पर चढ़ जाता है, सब संभव हो जाता है। 

ऐसे ही पतले पतले लोक हैं। आवाज ही उससे निकलती है और आवाज ही उसको खींच कर ले जाती है। वहां तक पहुंचना पड़ता है। वहां तक जब पहुंच जाता है तब आवाज़ अंदर तक खींच लेती है और फिर साधक उसी आवाज को पकड़कर के उसी लोक में पहुँच जाता है। लेकिन वहां जब पहुंचता है तो यह भूल जाता है कि हमको अगले बॉर्डर (लोक) पर भी जाना है क्योंकि वहाँ इतनी साधन, सुविधाएं, आनंद रहता है कि वहा फंस जाता है। माया लोक से निकलना बड़ा मुश्किल हो जाता है। साधक माया के लोक में गुरु को भी भूल जाता है। 

अपसराएं जब देखती, सुनती, आलिंगन करती है तो साधक ही सोचता है, गुरु अगर न आते तो बहुत बढ़िया था। लेकिन कहते हैं- *चाहे चूं करो, चाहे मूं करो*, हम तो तुमको छोड़ेंगे नहीं, हम तो तुमको लेने के लिए ही आए हैं, हम तुम्हारे लिए ही दु:ख झेल रहे हैं।

*बहुत से साधक नकली सतलोक में ही रह जाते हैं*



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