जयगुरुदेव आध्यात्मिक सन्देश
हर आदमी के मन में लम्बे जीवन जीने की लालसा होती है और लम्बी आयु तक जीने वाले को सौभाग्यशाली माना जाता है, परन्तु यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि किसने कितनी लम्बी आयु पायी बल्कि महत्त्वपूर्ण यह है कि किसने कैसा जीवन जीया और जी कर क्या किया ?
अधिक आयु तक जीना हमारे हाथ में नहीं है किन्तु ख़ुशहाल, प्रसन्न, शान्त- संतुष्ट, सुखी जीवन जीना हमारे हाथ में है और इसके लिए बड़े वैभव, पद, प्रतिष्ठा की नहीं बल्कि सुन्दर विचार, कर्म, आचरण और दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसके लिए हर मनुष्य सर्वथा स्वतन्त्र है। जीवन को सुन्दर, ख़ुशहाल, शान्त-सुखी बनाने के लिए कुछ सूत्र इस प्रकार हैं-
# प्राप्त समय, शक्ति और योग्यता के अनुसार सदैव कर्म- शील एवं सेवापरायण रह कर जो मिला है, उसी में संतुष्ट रहने के साथ जो नहीं मिला या मिल कर छूट गया, उसके लिए कोई चिन्ता व शिकायत नहीं करना चाहिए। कर्तव्य- पालन, सेवा, त्याग एवं सहन करने में आगे और सुविधा लेने व भोग-स्वार्थ में सदैव पीछे रहने से न किसी के प्रति कोई शिकायत होगी, न मन में कोई क्षोभ होगा।
# किसी के साथ रहने या किसी को साथ में रखने में न तो किसी प्रकार की कोई शर्त रखनी चाहिए और न ही उनसे किसी प्रकार की कामना, अपेक्षा व आग्रह रखना चाहिए बल्कि निष्काम, संतुष्ट रहकर सेवापरायण रहना चाहिए।
# किसी के कटु वाणी का प्रत्युत्तर मधुर वाणी में देना चाहिए। दूसरों से कटु बोलने वाला भी अपने लिए मीठी बोली की अपेक्षा करता है। कटु बोली अपनों को पराया और निकट के लोगों को दूर कर देती है जबकि मीठी बोली परायों को अपना और दूर के लोगों को समीप कर देती है किन्तु मीठी बोली में कोई छल-कपट एवं स्वार्थ भाव नहीं होना चाहिए।
ज्ञातव्य है कि कटु वाणी बोलने वाले का शहद व गुड़ भी जल्दी नहीं बिक पाता है और मधुर कोमल वाणी बोलने वाले का करेला व मिर्चा भी जल्दी बिक जाता है। अपनी ज़ुबान को कीटनाशक ज़हर बनाने वाली फ़ैक्टरी के बजाय चीनी बनाने वाली फ़ैक्टरी बनाना चाहिए। बाहर का ज़हर तो केवल पीने वाले को मारता है, जबकि ज़ुबान का ज़हर पिलाने और पीने वाले को भी आहत, दुखी एवं बेचैन कर देता है। शरीर के रक्त में निश्चित मात्रा से कम या ज़्यादा शुगर ( मिठास ) होने पर शरीर रोगी हो जाता है, लेकिन ज़ुबान में मिठास की मात्रा जितनी बढ़ेगी, रिश्ते उतने ही ज़्यादा मजबूत एवं मैत्रीपूर्ण होंगे।
अत्यधिक हर्ष, दुःख, शोक, क्रोध की स्थिति में न तो किसी को किसी प्रकार का वचन देना चाहिए और न ही ऐसी स्थिति में कही गई किसी की बात पर विश्वास कर उसका बुरा मानना चाहिए क्योंकि उस समय में आदमी की विवेक-बुद्धि सही काम न करने से उसको ख़ुद पता नहीं रहता है कि वह क्या कह/ कर रहा है। अपने दिमाग को लोहा गलाने वाली भट्ठी बनाने से इसकी आँच से स्वयं के जलने के साथ सारे रिश्ते-नातों के झुलसने का ख़तरा है जबकि दिमाग को ठण्डा रखने से स्वयं शान्त रहने के साथ सम्पर्क में आने वालों को भी शीतलता मिलेगी। दूसरों की ग़लती, भूल, बुराई, दोष की बराबर चर्चा करने से अपना मन तो मलिन होगा ही, परस्पर का व्यवहार भी कटु होता जाएगा। दूसरों की अच्छाइयों, सदव्यवहार और सद्गुणों की चर्चा से पारस्परिक व्यवहार मृदु होगा।
# छोटी-मोटी ग़लती या भूल मानवीय गुण है। दूसरे की भूल को नज़रअंदाज़ तथा स्वयं की भूल को बिना किसी दलील के स्वीकार कर लेने में ही समझदारी है। दूसरे का प्रिय पात्र बनने के लिए उसकी ज़्यादा सुननी चाहिए और उसे कम सुनाना चाहिए,साथ ही चापलूसी एवं स्वार्थभावना से रहित होकर सच्चे दिल से उसकी सच्ची प्रशंसा तो करनी चाहिए किन्तु कभी भी उसकी बुराई को अच्छाई या दुर्गुण को सद्गुण बता कर नहीं। प्रायः हर आदमी को परनिन्दा व स्वप्रशंसा सुनना अच्छा और परप्रशंसा व स्वनिन्दा सुनना बुरा लगता है जो पतन का पथ है। पूजा व प्रशंसा सुन्दर चेहरे या चित्र की नहीं, सुन्दर चरित्र की और ऊँचे कैरियर की नहीं, ऊँचे करेक्टर की होती है।
यह प्रकृति का नियम है कि मनुष्य रोते हुए पैदा होता है, किन्तु यदि वह आजीवन रोता और दूसरों को रुलाता रहे तो उसका जीवन सर्वथा निरर्थक ही रहा। इसलिए जीवन ऐसा जीना चाहिए कि स्वयं भी ख़ुश रहें, दूसरों को भी हँसायें और हँसते-हँसते दुनिया से विदा हों।
जीवन में आचरण व व्यवहार ऐसा हो कि हमारी अन्तिम विदाई के समय हमारे लिए दूसरों की आँखों में आँसू हों। सुन्दर आचरण- व्यवहार के लिए अकेले में रहने पर अपने विचारों को और लोगों के बीच में रहने पर ज़ुबान को सम्हाल कर रखना चाहिए। दर असल आदमी वैसा नहीं होता है जैसा वह बाहर से दिखाई देता है बल्कि वैसा होता है जैसा उसके अन्दर विचार होते हैं। इसलिए विचार और चिन्तन सुवासित होने चाहिए।
एक टिप्पणी भेजें
0 टिप्पणियाँ
Jaigurudev