बाबा जयगुरुदेव संस्था उज्जैन की रोचक जानकारी (1.)

✩ जयगुरुदेव ✩  

⦓ भूमिका

भारत जैसे धर्म परायण देश में ऋषि, मुनि, योगी, योगेश्वर व सन्तों का प्रादुर्भाव हमेशा होता रहा है। लगभग 700 वर्ष पहले सन्तमत की जानकारी कराने वाले धरती के प्रथम सन्त कबीर साहब जब से आए, आज तक देश में उनके बाद मालिक ने कई सन्तों फकीरों को इस धरती पर भेजा।


जैसे कबीर जी, नानक जी पल्टू जी, तुलसीदास जी, गरीब साहब जी, राधास्वामी जी, विष्णुदयाल जी महाराज, घूरेलालजी महाराज, इसी श्रृंखला में तुलसीदास जी महाराज, एक विलक्षण महापुरुष, 'जयगुरुदेव' नाम प्रभु का बताने वाले जिनको बाबा जयगुरुदेव जी महाराज के नाम से जाना जाता है, उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में जन्म लेकर विभिन्न परिस्थितियों में जो भी किया जीवों के कल्याण के लिए ही किया। 


शरीर से कष्ट झेलते हुए अथक परिश्रम किया, गांव-गांव, शहर-शहर जाकर के जीवों को जगाया। उनके खान-पान, चाल-चलन को सही किया साथ ही साथ नामदान (भगवान की प्राप्ति का रास्ता) देकर साधना कराकर कितने जीवों को पार कर दिया। मनुष्य शरीर में 100 वर्ष से अधिक तक उन्होंने जीवों के लिए काम किया और ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष त्रयोदशी 18 मई 2012 को शरीर छोड़कर निजधाम चले गए।


सन्तमत की यह परंपरा है कि जब वक्त के सन्त सतगुरु चोला छोड़ते हैं तो आध्यात्मिक कार्य करने के लिए अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करके जाते हैं। अतः शरीर छोड़ने से लगभग 5 साल पहले ही बाबा जयगुरुदेव जी महाराज ने चालीसों साल शरण में रहे अपने परम् शिष्य बाबा उमाकान्त जी महाराज को, अपने ना रहने के बाद पुराने प्रेमियों की संभाल करने तथा नए प्रेमियों को नामदान देने की घोषणा कर दी थी।


बाबाजी के मथुरा आश्रम पर शरीर छूटने के बाद बाबा जयगुरुदेव जी महाराज के शरीर त्यागते ही कुछ स्वार्थी लोगों ने षड्यंत्र करके आश्रम पर कब्जा कर लिया और संतमत की परंपरा को भूल करके एक लड़के के सिर पर पगड़ी बांधकर बाबाजी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।


यह गुरुमुख गुरुभक्त लोगों को बिल्कुल पसंद नहीं आया। टकराहट की स्थिति देखकर बाबा उमाकान्त जी महाराज गुरु का नाम बदनाम न हो जाये, खून न बह जाये इसलिए सब कुछ छोड़कर दैनिक प्रार्थना ध्यान भजन के अवसर पर उपस्थित संगत को संदेश देकर खाली हाथ निकल पड़े। 
बाबाजी महाराज ने ठीक समय पर वही किया जो उनके गुरु बाबा जयगुरुदेव जी महाराज ने अपने गुरु के चोला छोड़ने पर किया था।


बाबा उमाकान्त जी महाराज जयपुर होते हुए उज्जैन मध्य प्रदेश आ गए जहाँ प्रेमिया के सहयोग से आश्रम बनाया व 'बाबा जयगुरुदेव धर्म विकास संस्था की स्थापना की और बाबा जयगुरुदेव जी महाराज के पद चिन्हों पर चलते हुए देश-विदेश में घूम-घूम कर के लोगों को शाकाहारी, नशामुक्त, मेहनतकश, चरित्रवान, देशभक्त रहने का उपदेश कर ही रहे है,

साथ ही साथ मनुष्य मंदिर में पानी जिस्मानी मस्जिद में ही गृहस्थ आश्रम में रहकर ख़ुदा भगवान के दीदार दर्शन करने का तरीका बताते हुए अपने गुरु का मिशन अर्थात इस धरा पर सतयुग लाने, गौ हत्या, मानवहत्या पशु-पक्षी की हत्या बंद करने और लोगों को शाकाहारी, सदाचारी, नशा मुक्त बनाने के कार्य में सतत प्रयत्नशील है।


➥ संत और संतमत

ऋषि मुनि अवतारी शक्ति, योगी, योगेश्वर से परे का दर्जा सन्तो का होता है।


➥ सन्त दो तरह के होते हैं-

1. गुप्त सन्त 
2. प्रगट सन्त।

जब सन्तमत नहीं था और प्रगट सन्तों का प्रादुर्भाव धरती पर नहीं हुआ था तब गुप्त सन्त इस धरती पर रहकर सम्हाल करते रहते थे। जब लोगों के कर्म ज्यादा खराब हुए तब सतपुरुष ने अपने 16 पुत्रों में से जोगणीत यानी कि कबीरदास जी को धरती पर भेजा। 

तब उन्होंने उस स्थान यानी सतलोक का भेद बताया जहां से शरीर चलाने वाली शक्ति यानी कि जीवात्मा नीचे मृत्युलोक में उतारी गई और सारा भेद खोल दिया हर तरह की जानकारी हो गई। गुप्त संत सदैव पृथ्वी पर रहते हैं। पूरी धरती का भार उन्ही पर रहता है लेकिन गुप्त सन्त जीवात्मा का उद्धार नही कर सकते न ही रास्ता बताते हैं।

प्रगट सन्त ही जीवत्मा की मुक्तिमोक्ष का रास्ता बताते हैं प्रगट संत और गुप्त सन्त दोनों एक दूसरे को जानते हैं इससे पहले नर्क चौरासी स्वर्ग बैकुण्ठ का ज्ञान तो लोगों को था। यह भी मालूम था कि पाप करने से नरक जाना पड़ता है और पुण्य करने से स्वर्ग और बैकुंठ लेकिन उससे बचने का उपाय नहीं मालूम था.

परंतु जब प्रगट सन्तु धरती पर आए, तब उन्होंने अच्छा-बुरा का ज्ञान तो कराया ही स्वर्ग बैकुण्ठ, नर्क और चौरासी से बचने व जन्म-मरण की पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए नामदान देकर के भजन कराया, अंतर में अपना परिचय दिया और जीवों को वापस सतलोक पहुंचाया।

इसी पद्धति को सबसे आला यानी सन्तमत कहा गया है। कलयुग में जीवों पर सन्तों ने दया की और उसके लिए कहा गया कि - 

सन्तों की महिमा अनंत अनंत किया उपकार 

अध्यात्मिक दृष्टिकोण से सच पूछा जाए तो जितने भी जीव है सब सन्तों के बच्चे की तरह से हैं चूकिं जीव उबारने के लिए ही सन्त आते है इसलिए फिक्र इनको ही रहती है और जो भी कार्य करते हैं या कोई माध्यम बनाते हैं तो जीवों की भलाई के लिए ही.


➥ सन्त वंशावली

सन्त वंशावली में प्रथम सन्त कबीरदास जी ने नामदान देने का अधिकार नानकदेव जी को दिया। नानकदेव जी ने अंगददेव जी को दिया।  इस तरह से नामदान देने का अधिकार दसों  गुरु एक दूसरे को देते गए। 

दसवें गुरु थे गुरु गोविन्द सिंह जी, जिन्होने नामदान देने का अधिकार रतनराव पेशवा जी को दिया रतन राम पेशवा जी ने श्यामराव पेशवा जी  (तुलसीदास जी हाथरस वाले) को दिया, श्यामराव पेशवा जी ने शिवदयाल जी को दिया जिन्होंने राधास्वामी मत की स्थापना की थी।  फिर शिवदयाल जी ने गरीबदास जी को नामदान देने अधिकार दिया। 

गरीबदास जी ने विष्णु दयाल जी को दिया फिर विष्णु दयाल जी ने घूरेलाल जी (दादा गुरु जी) को,  दादा गुरु जी ने परम पूज्य तुलसीदास जी (बाबा जयगुरुदेव जी महाराज )को  तथा बाबा जयगुरुदेव जी महाराज ने बाबा उमाकांतजी जी महाराज को नामदान देने, जीवों की सम्हाल व अधूरे काम पूरा करने के लिए धरती पर सतयुग लाने हेतु खुले मंच से आदेश दे दिया।



➥ परम पूज्य बाबा जयगुरुदेव जी महाराज के वचन


🟔 ये पाँच नाम कभी नहीं बदलेंगे-  तो ये बातें ध्यान रखो, उस मालिक का नाम- पाँच नाम न कभी बदलता है न कभी बदलेगा। ये पहले भी था और अब भी है।  आप उसके लिए कोई भी नाम बना लो पर ये परमात्मा के पांच नाम न कभी बदले न बदलेंगे।  
(अमर सन्देश, वर्ष -12, अंक ६,  अक्टूबर 1989,  पेज नं.-128) * 


🟔 पांच नाम के सुमिरन का महत्व : 
केवल सुमिरन के द्वारा ही जीवात्मा शरीर को छोड़कर ऊपर की ओर जाती है। सुमिरन में उन धनियों को याद किया जाता है जो ऊपर के दैविक मंडलों में जगह-जगह बैठे हुए हैं और अपने-अपने मंडलों में राज कर रहे हैं। मन को रोककर सुमिरन करने से अनुभव जल्द होने लगता है। ऊपर के धनी प्रसन्न होकर आगे का रास्ता जीवात्मा को दे देते हैं।
(शाकाहारी पत्रिका, 21 से 27 अप्रैल 2011, वर्ष 40, अंक 38,  मुख्य पृष्ठ )


🟔 सभी समय में सन्तों का उपदेश एक ही होता है। सुरत शब्द योग का और नाम का सभी ने वर्णन किया है।
(शाकाहारी पत्रिका 07 से 13 मार्च 2011, वर्ष 40, अंक  -33  मुख पृष्ठ)


🟔 जिन स्थानों  पर महात्मा पहले रहा करते थे, ठीक ही रहे। लेकिन बाद में वो चले जाते है तो यह स्थान खाली हो जाते है। फिर वहां वापस नहीं आते हैं और आप उन्हीं स्थानों पर भटकते हो यह नहीं समझते हो कि जो देने वाले थे वो तो चले गए, अब आपको खोज करनी पड़ेगी कि कोई जानकार भेद बताने वाला मिल जाए वो किसी जमीन-जायदाद के बंधुआ नहीं होते हैं। वो किसी बंधन में नहीं होते हैं। वो केवल ये चाहते हैं- कि आप यहाँ से निकल चलो। क्योंकि यह मौका फिर मिलेगा नहीं। इसलिए शब्द की कमाई कर लो तो आपको सब रत्न जवाहरात मिल जायेंगे। 
(शाकाहारी पत्रिका, स्वामीजी ने कहा कालम से )

जयगुरुदेव
साभार, (पुस्तक) स्मारिका सन 2012 से सन 2022 तक 
smarika-2012-to-2022

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