☀ वास्तविक दर्शन किसे कहते हैं
कुछ लोग दर्शन के विषय में बहुत धोखे में पड़ जाते हैं इसलिए इसे भी कुछ साफ किये देता हूँ ताकि गलती न हो और वह अपने उद्योग से हाथ न खींच लें। यह सम्पूर्ण जगत कल्पना की ही मूर्ति है जिस तरह बर्फ के अन्दर जल के और नमक के अन्दर नमक के परमाणु ही रहते हैं उसी तरह वाणी के अन्दर कल्पनाओं का भण्डार रहता है।
इन सारी कल्पनाओं को त्याग के एक कल्पना को पकड़ना ही साधना कहलाती है। ऐसी कल्पना को पकड़कर जब साधक अभ्यास करता है तो आगे उसी कल्पना का रूप बन जाता है। अथवा वहां कल्पना के अन्दर समावेश हो जाती है। जैसे महर्षि पतांजलि ने बताया है। ऐसी अवस्था होने पर वही कल्पना साक्षात मूर्ति बनकर स्वप्न में या ध्यान में सम्मुख आ खड़ी होती है।
कभी स्थूल सूरत में और कभी प्रकाश की शक्ल में। उसमें एक विशेष आनन्द भी होता है हर्ष और कुछ शान्ति भी मिलती है। इसे देख के साधक चकित हो जाता है कि काम पूरा हो गया। साक्षात दर्शन मिल गया परन्तु यह दर्शन नहीं है। ऐसे दर्शन से धोखा खा के संतुष्ट न हो जाओ बल्कि आगे बढ़ो। वास्तविक दर्शन की और निज कल्पना की कुछ पहिचान बताते हैं उसी से अन्दाजा लगाओ।
☀ सत्य और कल्पना में अन्तर
वास्तविक दर्शन और कल्पना का सबसे बड़ा अन्तर तो यह होता है कि कल्पना की मूर्ति के अन्दर क्षण-क्षण में परिवर्तन होता है और वास्तविक शकल चाहे घण्टों सम्मुख रहे वह एक जैसी रहती है। उसकी सूरत में कोई तब्दीली नहीं आती। दूसरा कल्पना की मूर्ति से यद्यपि कुछ खुशी और आनन्द मिलता है क्योंकि उस समय मन चंचलता त्याग कर एक ही केन्द्र पर स्थित हो जाता है और मन की एकाग्रता में ही आनन्द रहता है। परन्तु असली दर्शन के समय आनन्द के साथ-साथ ऐसी एक शान्ति होती है, जिसमें न तो कोई चिंता या घबराहट रहती है न किसी प्रकार का भय रहता है।
☀ प्रतिदिन के विचार
जैसे सती स्त्री अपने बलवान पति को समीप देख के निर्भय हो जाती है। जैसे निर्बल बालक अपने माता-पिता की गोद में बैठके सारी व्यवस्थाओं से अपने को मुक्त देखता है वैसे ही उस समय उपासक की दशा होती है। वह अपूर्व ढाढस और साहस अपने में पाता है। सारी अलौकिक शक्तियों अपने अधिकार में देखता है। उसे ऐसा प्रतीत होता है मानो कामधेनु और कल्पवृक्ष दोनों उसके आश्रम में ही आ गये हैं और मन चाही वस्तु देने को खड़े हैं। उतनी देर के लिए जीव की अल्पज्ञता जाती रहती है वह सर्वज्ञ हो जाता है।
☀ कामधेनु और कल्प वृक्ष
कामधेनु और कल्प वृक्ष एक प्रकार की शक्तियां हैं जो साधना करते करते उपासकों में आया करती हैं। कामधेनु का अर्थ है कामनाओं अर्थात् मुरादों को पूरा करने वाली शक्ति। जिस साधक के अन्दर यह शक्ति आ जाती है उसकी जो ख्वाहिश (वासना) जिस समय उभरेगी उसी समय उसके पूर्ण होने का प्रबन्ध हो जायेगा। जिस पदार्थ की वह इच्छा करेगा वही वस्तु फौरन ही उसके समीप आ जायेगी।
किसी चीज का किसी वक्त भी अभाव उसके लिए न रहेगा इसी को कामधेनुं कहते हैं। दूसरी शक्ति कल्पवृक्ष कहलाती है। यह कल्पना शक्ति है। उसके उभरने पर मन की कल्पनाओं में यह ताकत आ जाती है कि ख्याल करते पदार्थ की कल्पित मूर्ति बन जाती है जैसे मैदान में खड़े होकर उसने यह संकल्प किया कि यहाँ एक बड़ा उत्तम महल जिसमें आराम के सारे सामान मौजूद हों अभी बन जाय तो फौरन ही उसके दिल के नक्शों के मुताबिक वहां महल दिखाई देने लगेगा और उसमें उसकी मरजी के अनुसार सारे सामान होंगे। पहली को इच्छा शक्ति और दूसरी को कल्पना शक्ति कहते हैं।
यह जरूरी नहीं है कि मनुष्य के अन्दर यह दोनों ही शक्तियां एक साथ आ जायें। किसी किसी को एक कामधेनु ही मिलती है और किसी को कल्पवृक्ष और किसी को दोनों ही। देवर्षि वशिष्ठ और महर्षि भारद्वाज को दोनों प्राप्त थीं। इन्हीं की सहायता से उन्होंने चित्रकूट जाते समय महाराज भरत का आतिथ्य सत्कार किया था। और एक रात के लिए सम्पूर्ण स्वर्ग की रचना कर डाली थी। विश्वामित्र जी ने इसी कल्पवृक्ष (कल्पना शक्ति) के सहारे दूसरे ब्रम्ह्माण्ड की रचना की थी और उसमें मनुष्य, पशु, पक्षी, देवता, दैत्य सभी बना डाले थे। अब भी गुरू कृपा और उद्योग से मनुष्य ऐसी सामर्थ्य पा सकता है।
☀ स्वभाव परिवर्तन
➤ सबसे बड़ा अन्तर स्वभाव परिवर्तन का होता है। वास्तविक दर्शन के पश्चात् मनुष्य एक दम बदल जाता है। उसका रहन सहन उसका दूसरों के प्रति व्यवहार उसके अन्दर के भाव व वृत्तियों कुछ और हो जाते हैं। बहुत से लोग कहते हैं कि आज हमको भगवान के साक्षात दर्शन हुए परन्तु आगे चल के स्वभाव और व्यवहार वैसा ही दिखाई दे जैसा कि पहले था तो समझ लेना चाहिये कि यह दर्शन नहीं कल्पना थी।
➤ कई लोग ऐसी ही डींग मारते हैं और कहते फिरते हैं कि हमें दर्शन हो गया है परन्तु काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या इत्यादि उनके अन्दर दुर्गुणों का प्रकोप दिखाई दे रहा हो तो ऐसा समझना कि या तो प्रतिष्ठा कराने और महात्मा कहलाने के लिए झूठे ही ऐसा कह रहे हैं या शुद्ध भाव से ऐसा कहते हैं तो अपनी कल्पित मूर्ति से ही इन्हें धोखा हुआ है। दर्शन के बाद मनुष्य देव समान हो जाता है। अवगुणों के लिए उसके अन्दर स्थान ही नहीं रहता। शान्ति और तृष्णा रहित उसका मन बन जाता है।
➤ यह सब ऐसे भेद हैं जिनमें साधकों को अपनी जांच करने में आसानी हो सकती है। धोखा खा के अटक रहने में अपनी ही हानि होती है। इसीलिये यह सब हमने बताया है। जब तक गुरू से शब्द न मिल जाय और वह पूर्ण न कह दे तब तक विद्यार्थी ही समझना और विद्या के लिए कोशिश करते रहने ही में भलाई होती है।
➤ अहंकार आ गया तो हानि ही हानि है। इस दैत्य से बहुत बचने की जरूरत है। आगे उपासना का वह मुख्य साधन जिससे रीझ के भगवान वश में होते हैं और दर्शन देते हैं बतलायेंगे पर गुरू प्रसन्नता पर दर्शन स्थिर होगा। बगैर गुरू के बिना दर्शन सदा कल्पित होते रहेंगे और मन स्थिर न होगा।
➤ अरे मन तू अनहद शब्दों को सुन जो तेरे में हो रहे हैं। गुरू ने आकर सब जीवों को उपदेश दिया कि शब्द सुनो जो परम पिता परमात्मा की आवाज हो रही है। जब शब्द सुनाई देने लगे तो तुम मन को और सुरत को शब्द के साथ जोड़ दो उन्हीं शब्दों में अमृत चूता है मन को और सुरत को पीने दो! पीते पीते यह मन तृप्त हो जाएगा। तब तुम सुरत को नाम के साथ रत कर दो। एक चक्र तीसरे तिल पर है।
➤ जब वह चक्र घूमता है उस समय साधको गुरू हिदायत से उसी चक्र को उलटा कर लो और उसके साथ मन सुरत को कर दो ताकि सुरत अपनी वास्तविक शक्ति पा जावे। चक्र के खुलते ही शब्द धुन खुल जाती है और सुनाई देने लगती है। शब्दों में अनेक पदार्थ हैं। जब तक ये धुन नाम नहीं प्राप्त होते हैं तब तक साधक की सुरत की गति नहीं होती है। संत सतगुरू की हिदायतें हैं कि बगैर सतसंग के नाम नहीं मिलेगा।
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