【 गुरु की दया, प्रेमियों के अनुभव 】 (post 8)

19. Mahatma prarbdh 
*महात्मा प्रारब्ध बदल देते हैं* - आर के पाण्डे*

सम्भवतः सन 72 की बात है ।  
उत्तरप्रदेश के रायबरेली जिले में शिवगढ़ स्थान है जहां बनखण्डी विद्यापीठ में एक चपरासी थे रामकुमार पाल। बहुत गरीब थे और परिवार के लिए दो वक्त भोजन नहीं जुटा पाते थे। 
70 रुपया तनख्वाह मिलती थी। पौन बीघा जमीन थी।  बाबा जयगुरुदेव जी के बड़े प्रेमी थे।  
उन दिनों गांव - गांव में पर्चा बांटकर लगन से सत्संग का प्रचार करते थे।

स्वामी जी महाराज का लखनऊ आगमन हुआ तो वे शहर आए।  बड़े डरते-डरते प्रार्थना किया कि महाराज मेरे गांव की तरफ पधारें तो उधर भी जीवों का कल्याण हो जाय।  

स्वामी जी ने कहा कि ठीक है चलूंगा।  
सत्संग की तारीख और समय तय हो गया और अपने गांव में जाकर प्रचार कार्यों  में वे जुट गये।

स्कूल में कार्यक्रम कराने की बात जब उन्होंने कही तो प्रिंसिपल ने बुरा भला कहते हुए इन्कार कर दिया। 
वे बहुत परेशान हुए कि कहां इन्तजाम होगा,  कैसे लाउडस्पीकर आदि का प्रबन्ध किया जायेगा।  

उन्होंने अपनी परेशानी जब मुझसे कही तो मैंने ढाढस दिलाया कि मालिक सब अपना इन्तजाम करता है।
मैं कुछ लोगों को लेकर अपनी मोटर साइकिल से बदरावां होते हुए शिवगढ़ गया और प्रिन्सिपल से मिला। 
बातचीत हुई और उन्होंने कार्यक्रम करने की परमिशन दे दी।  साथ में स्वामी जी के स्वागत जलपान आदि का प्रबन्ध स्वयं करने को कहा।

निर्धारित समय पर स्वामी जी
शिवगढ़  के लिए चल पड़े ।  साथ में कई मोटर साईकिलें भी थीं।  पहले सीधे मंच पर गए,  सत्संग किया फिर आगे चल पड़े । 
 रास्ते में गाड़ी रोककर स्वामी जी ने मुझसे पूछा  कि उसका घर कहां है कितनी दूर है।  

घर का तो मुझे पता नही था स्कूल का मालूम था।  मैंने रामकुमार से पूछा कि तुम्हारा घर किधर है ?  उसने कहा थोड़ी दूर है।
मेड़ का रास्ता था। स्वामी जी कार से उतरकर मेरी जावा मोटर साइकिल पर पीछे बैठ गये और कहा कि उसके पीछे चलो।

मैं घबड़ा गया।  `जयगुरुदेव जयगुरुदेव` मन ही मन बोलता हुआ गाड़ी मेड़ों पर चलाता गया और रामकुमार आगे आगे भागा जा रहा था।


एक खेत के पास स्वामी जी गाड़ी रुकवाकर उतर गये, पूछा ये किसका खेत है ?  मुझे क्या पता था कि किसका है ।  आवाज देकर रामकुमार को मैंने बुलाया।

आने पर पूछा कि यह खेत किसका है,  तो बोला कि हुजूर मेरा ही है।
स्वामी जी ने उस खेत के चारों तरफ पैदल टहलते हुए एक चक्कर लगाया। हम सब खड़े खड़े यह दृश्य देखते रहे।

 स्वामी जी लौटकर जब आये तो उन्होंने रामकुमार से कहा कि बच्चू!  *आज से तुम्हें दोनें टाइम भोजन मिलेगा।*
 फिर स्वामी जी रामकुमार के घर गये।   कच्चा मकान, एक कमरा, बरामदा और एक छोटा आंगन।

बरामदे में पड़ी चारपाई पर स्वामी जी आसन लगाकर बैठ गये।  ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई राजा महाराजा बैठा हो।  

स्वामी जी ने पूछा कि खाने का क्या इन्तजाम है।  रामकुमार बोला कि महाराज देशी घी की पूड़ी सब्जी है।  स्वामी जी उठे और रसोई में चले गये।
डलवे में पूड़ी और बर्तन में आलू की सब्जी ढककर रक्खी थी।
स्वामी जी ने डलवा बाहर निकलवाया। कपड़ा उठाया तो देखा बड़ी - बड़ी पूड़ियां थां।  सबको बिठाया गया।  आंगन भर गया तो कुछ लोग बाहर बैठ गये।  पूड़ी सब्जी सबको परोसी गयी।  सबने खाया किन्तु एक सत्संगी ने नही खाया।

स्वामी जी ने उनसे कहा कि खालो देशी घी की है।  उन्होंने जवाब दिया कि स्वामी जी मेरा पेट खराब है।  सत्संगी ने कहा कि हां दूध ले लेंगे।

मैंने रामकुमार की तरफ देखा।  वो डरता हुआ धीरे से मुझसे बोला कि दूध तो नही है।  मैं चुप हो गया। 

स्वामी जी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा कि तुम्हें याद तो रहता नही है जाकर देखो कहीं लौटै औटे मे रखा होगा।

वह बेचारा सोचते हुए गया तो,  मगर डर रहा था कि अब क्या करुं।  लुटिया पर जब उसकी निगाह गयी तो देखा कि वह दूध से भरी हुयी थी  और गरम थी, मानो अभी उसमे गरम दूध डाला गया है।  उसने लाकर उसे पीने के लिए दे दिया।

चमत्कार यह हुआ कि डलवे में जितनी पूड़िया थी सबके खाने के बाद भी डलवा भरा दिखायी दिया।  मैंने उसे कपड़े से ढकते हुए रामकुमार से कहा कि ये पूड़ियां गांव में सबको बंटवा देना।  वो हैरान था कि ये सब क्या हो रहा है.......



*सात महीने बाद*

लगभग सात महीने बाद रामकुमार मेरे दफ्तर में आया।  बढ़िया धोती,  कुर्ता,  टोपी सदरी की पोशाक में और बोला कि बढ़िया एक घड़ी ले दीजिए।

मैंने उससे पूछा कि ये सब क्या है ?
उसने जवाब दिया कि मालिक की मुझ पर बहुत बड़ी दया है। *अब हम दूध रोटी खाइत हैं दूनो टाइम।*
मैंने कहा कि कुछ बताओ तो सही।

वह बोला कि  अब हमारे खेत के बीज मांगने लोग आते हैं।  पौन बीघा खेत में चालीस मन पक्का गेहूं हुआ है। लोग आंख फाड़ फाड़ कर देखते रहे। डांड़ी का तौला 40 मन गेहूं।

फिर कहने लगा कि बाबा का एक और चमत्कार सुनो।
एक ठाकुर साहब की भैंस दूध नही देती थी और सबको मारती अलग थी।  ठाकुर साहब बहुत परेशान
थे और कहते थे कि बिना पैसे के कोई ले जाये तो दे दूंगा। 

मैं उनके पास गया और उन्होंने मुझे भैंस दे दी।
पैसे के लए पूछा तो डांटने लगे कि  *`तुम मुझे पैसा दोगे ?` ले जाओ।*

*मैंने हिम्मत की और भैंस के पेट पर, पीठ पर  `जयगुरुदेव` लिख दिया।*

सत्संग में स्वामी जी ने बताया कि ऐसा करने से जानवर भी ठीक हो जाता है। मैंने वही किया।
भैंस पांच लीटर दूध  देती है दोनों टाइम।  आधा बेच देते हैं और आधा बच्चे पीते हैं।  तनख्वाह पूरी बच जाती है।
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......रामकुमार की कहानी सुनकर मैंने कहा कि *जैसे तुम्हारे दिन बहुरे है वैसे सबके दिन बहुरें।*

मैंने उसे एक अच्छी विदेशी घड़ी 85 रुपये में दिलवा दी जिसकी कीमत बाजार में 125 रुपये थी।  कस्टम वालों को कुछ छूट मिल जाती है।


मैं सोचने लगा कि स्वामी जी ने उससे कहा था कि *`आज से तुम्हें दोनों टाइम भोजन मिलेगा`*  सो बात सच साबित हुयी और उसका प्रारब्ध बदल गया।

जयगुरुदेव
_- शाकाहारी पत्रिका से साभार_
20 सितम्बर 1996

शेष क्रमशः पोस्ट न. 9 में पढ़ें  👇🏽

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