*स्वामी जी ने सुनाई कहानी* 5.

कहानी संख्या  5.

● बात समझने की ●


आपको एक वाक्या सुनाऊं।
एक फकीर साहब थे वे गांव के बाहर एक खण्डहरनुमा कमरे में रहते थे। आगे थोड़ा सा चबूतरा था शाम को उसी पर बैठते तो गांव के लोग उनके पास आया जाया करते थे। उसी गांव में दो भाई रहते थे। दोनों दिन भर मेहनत मजदूरी करते थे। पुरखों के विरासत से मिली उस खण्डहर से लगी थोड़ी सी जमीन थी और एक छोटा मोटा मकान था।

छोटा भाई फकीर के पास आता जाता रहता था। वो यह नही जानता था कि फकीर क्या हस्ती होती है। वो यह भी नहीं समझता था कि फकीरों से कैसे बात करनी चाहिए, लेकिन उसका नियम था कि दिन भर मजदूरी करने के बाद शाम को सीधे फकीर साहब के पास जाता, उनका हुक्का चिलम भरता और बड़े प्यार स कहताे कि ले बाबा हुक्का पी ले, अभी तक तेरा हुक्का ठण्डा पड़ा था।

फकीर साहेब हंसकर कहते कि अरे शाह तू आया ही नहीं था तो हुक्का कौन भरता। फकीर साहेब उसको शाह कहकर पुकारते थे। फिर वह दिनभर की सारी कहीं अनकहीं सुना जाता। फिर वो अपने घर जाता। यह उसका रोज का नियम था। कभी उसे देर होती आने में तो फकीर साहेब उसका इंतजार करते रहते।
गांव वालों को समझ नही आता था कि इस लड़के की इंतजारी फकीर साहेब क्योें करते हैं। 

एक दिन बात के सिलसिले में शाह ने कहा कि बाबा तेरा चबूतरा टूट गया है। कमरा भी ठीक नहीं है अगर तू कहे तो मैं इसको बना दूं। फकीर साहब ने कहा कि बना दे। उसने कहा कि देख बाबा, काम की मजदूरी नहीं लूंगा लेकिन पैसे तो हैं नहीं मेरे पास सामान तू मंगा दे।
बाबा ने एक बटुआ दिया और कहा कि इसे ले जा सामान ले आना और बना देना मैं कुछ दिनों के लिये बाहर जा रहा हूं। फकीर साहब चले गए। 

बड़े भाई को कुछ पूंजी मिल गई तो उसने सोचा कि इस जमीन पर एक मकान बना लूं। वो चाहता था कि फकीर साहब की कोठरी को भी मिला लें।
छोटा भाई तैयार नहीं था। उसकी जिद थी कि फकीर साहब से मैंने कहा है कि इसको ठीक करुंगा। इस पर दोनों भाइयों में ठन गई। छोटे के लिए यह अग्नि परीक्षा का समय था। हर तरह की उसने मुसीबत झेली लेकिन भाई को उस जमीन पर मकान बनाने नही दिया और न ही फकीर के दिए पैसों को उसने किसी को दिया।

फकीर साहब ने सुना तो वो भी भेष बदलकर आकर देख गए। फिर ऐसा हुआ कि कहते हैं कि जैसे कुम्हार अपने घड़े को नीचे हाथ रखकर ऊपर से थापे मारता है ऐसे ही फकीर महात्मा अपने जीवों को खरा बनाते हैं। आखिर में गांव वालों ने साथ दिया। उसने फकीर साहब का कमरा और चबूतरा सही किया क्योंकि उसे विश्वास था कि फकीर साहब जरुर आयेंगे। बड़े भाई की नाराजगी की उसने कोई परवाह नही की।

कहने का मतलब यह कि फकीर और महात्मा लच्छेदार बातों से नही रीझते, बहुत कूंदा फांदी करने से भी नही रीझते। वह तो रीझते हैं दिल के सच्चे भाव से। इसी पर वो फिदा हो जाते हैं। 



*मुझे एक पुरानी बात याद आ गई।*

एक सत्संगी भाई थे। उनका स्वभाव था कि वो हर बात हंसकर ही शुरु करते थे। एक बार स्वामी जी महाराज से एक सत्संगी ने शिकायती लहजे में यह कहा तो स्वामी जी ने एक छोटी सी घटना सुनाकर बहुत अच्छी तरह समझाया था कि एक महात्मा जी थे। उनके पास एक आदमी जाया करता था। वो भी बराबर हंसता रहता था। किसी ने महात्मा जी से कहा कि महाराज जी ये हरदम हंसता रहता है तो महात्मा जी ने कहा कि मुझे तो उसकी हंसी बहुत अच्छी लगती है। इस पर सब चुप हो गए।

कहने का मतलब ये है कि महात्मा भाव की निश्छलता देखते हैं, ऊपर की बनावट नही देखते हैं। निश्छल भाव से कोई आये सबको गले लगाते हैं। कहते तो वो किसी को कुछ नहीं, चाहे कोई कैसा आये लेकिन सत्संग में इशारे हर बात के देते हैं। सत्संग के मंच पर सीधी सपाट बात करते हैं। वो खुद भी बड़े भोले होते हैं, किसी से कोई दांव पेंच नहीं करते इसीलिए भोले लोगों को चाहते हैं।

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साभार,
शाकाहारी सदाचारी पत्रिका,
७ से १३ सितम्बर २०१२
जयगुरुदेव ●

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