जयगुरुदेव ● जिज्ञासा का परमार्थी समाधान ● [5]

◆ *प्रश्न २२.  स्वामी जी ! सत्संगी हो या गैर सत्संगी हो उसकी प्रेम भाव से मुफ्त दी गई चीज स्वीकार करनी चाहिए या नहीं ?*

उत्तर - सत्संगियों का हिसाब गुरु के हाथ रहता है । मगर गैर सत्संगी का देना पड़ेगा। यह भी हो सकता है कि पहले का उसने लिया हो और अब अदा कर रहा हो । कर्मों का विधान बड़ा गहन है । जो ऊंचे साधक होते हैं वही समझ सकते हैं।


◆ *२३.स्वामी जी ! काल भगवान के दायरे में कौन-कौन से जीव आते हैं ?*

उत्तर - काल के दायरे में तो सभी जीव हैं । काल भगवान की ताकत बड़ी जबरदस्त है वह किसी जीव को माफ नहीं करते । ब्रह्मा विष्णु और शिव तीनों कर्मों के दायरे में हैं इनका भी नाश हो जाता है भले ही लंबे समय के बाद । फिर अपने कर्मों के अनुसार इन्हें आवागमन में जाना पड़ता है। अवतारी शक्तियां जो आईं उनको भी अपने कर्मों का हिसाब देने के लिए धर्मराय के दरबार में जाना पड़ा । केवल संत सतगुरु जो सारे बंधनों से मुक्त होते हैं और समरथ होते हैं उनसे काल भगवान भी डरते रहते हैं।


◆ *२४. स्वामी जी ! कभी-कभी मन खराब हो जाता है और सत्संग में रूखा फीका होने लगता है तो ऐसा क्यों होता है ?*

उत्तर - साधक की मनोवृत्ति दो प्रकार से खराब होती है जो साधन और गुरु की तरफ से मोड़ देती है । किसी स्त्री की तरफ तुम्हारा झुकाव हो गया तो यह निश्चित है कि वह स्त्री तुम्हें गुरु तथा सत्संग की तरफ से विमुख कर देगी । पराई स्त्री से सदा दूर रहना चाहिए । दूसरा है मान सम्मान। दूसरों से मान चाहोगे तो तुम्हारा मन हमेशा डावांडोल रहेगा। गुरु से भी मान-सम्मान की कामना करने लगोगे । फिर यह तुम्हारे पतन का रास्ता शुरू हो जाएगा किसी ना किसी दिन तुम को ठोकर अवश्य लगेगी। 

यह मन माया का है और इसकी उत्पत्ति माया से हुई है । माया ने जो इस दुनिया में पसारा फैलाया है उसमें मन को चरने के लिए छोड़ दिया है । इंसान माया के खोल में आनंद की तलाश करता है वह यह नहीं जानता की खोल में आनंद नहीं है। इसलिए जरूरी है कि इन सब बातों को समझो। समझ सत्संग से ही आती है । सत्संग के वचनों को दृढ़ता से पकड़े रहोगे तो मन पर सदा अंकुश लगा रहेगा।


◆ *२५. स्वामी जी ! सुमिरन कब करना चाहिए ?*

उत्तर - सुमिरन कभी भी कर सकते हो मगर इसका समय निश्चित होना चाहिए। ध्यान और भजन तो जब मौका मिले तभी कर सकते हो परंतु सुमिरन का एक निश्चित समय होना चाहिए, उसी समय प्रतिदिन सुमिरन ठीक से चित्त को स्थिर करके मन लगाकर बड़े प्रेम से करना चाहिए। जिस धनी के नाम का सुमिरन करो उसी के रूप का ध्यान होना चाहिए । यह नहीं कि नाम किसी का लो और ध्यान किसी और का करो ।

जब नाम लेकर स्वरूप का ध्यान किया जाता है तो फौरन उसको खबर लग जाती है कि मुझे कोई याद कर रहा है और वह अपनी दया की किरणें भेजने लगता है। स्थान के धनी जब तक प्रसन्न नहीं होंगे वह अपने आगे का रास्ता नहीं देंगे इसलिए जीव कभी आगे नहीं जा सकता । 

जब स्थान के धनी के रूप का सुमिरन बड़े प्यार से करोगे तब तो वह प्रसन्न होकर अपनी आवाज देगा उसी आवाज उसी ध्वनि के सहारे तब जीवन आगे चलता है । धनी जब प्रसन्न होकर अपना मुंह खोल देता है तभी आगे जाने का रास्ता मिलता है। गुरु का स्वरूप हर स्थान पर है हर धनी के रूप के भीतर गुरु का स्वरूप मौजूद है और बड़े प्यार से उसे प्रकट कर लेना चाहिए।


◆ *२६.  स्वामी जी ! भजन के वक्त अन्तर में घंटे की आवाज नहीं सुनाई पड़ती दया कीजिए।*

उत्तर-  जब तुम दृढ़ता के साथ निश्चय कर के भजन में बैठोगे और एकाग्रता जब आएगी तब तमाम आवाज सुनाई पड़ेगी। उनमें एक आवाज घण्टा और शंख की भी होगी । घंटे की आवाज निरंजन भगवान के स्थान सहस्रदल कमल से आती है । तुम्हें करना यह है कि इस आवाज को छांटना है और फिर पकड़ना है । बड़ी मधुर आवाज है इसे सुनकर जीवात्मा में एक प्रकार का नशा होने लगता है एकाग्रता आने लगती है ।

जब एकाग्रता पूरी होगी तो यह आवाज जीवात्मा को चुंबक की तरह खींच लेगी और निरंजन भगवान, ईश्वर, खुदा, गॉड के सामने ले जाकर खड़ा कर देगी। फिर वहां जाकर परमात्मा का साक्षात्कार होता है। इसी आवाज को नाम भी कहते हैं शब्द धुन भी कहते हैं और ईसाई इसे वर्ल्ड कहते हैं ।

जीवात्मा जब सहस्रदल कमल में पहुंचकर ईश्वर का दर्शन करती है तो इसमें भी वही शक्ति आ जाती है जो उनमें है। शब्द में लय होने के बाद अभी दोनों आंखों के पीछे बैठी जीवात्मा अपनी खोई शक्ति को पाकर परम प्रकाशवान हो जाती है सर्वव्यापी हो जाती है।


◆ *२७. स्वामी जी ! मुझे चिंता बनी रहती है कि मेरा भजन नहीं बनता ।*

उत्तर-  तुम्हारी चिंता और परेशानी गुरु की चिंता और परेशानी है । इन सब चिंताओं को उनके हवाले कर दो और बेफिक्र होकर गुरु के लिए प्रेम को बढ़ाओ। बार-बार सत्संग मिले इस की लालसा बनाए रखो और बराबर आते-जाते रहो यह तुम्हारा फर्ज है । 

अगर तुमने सच्चा प्रेम कर लिया तो गुरु तुम्हें रास्ते में नहीं छोड़ेंगे अपने साथ धुरधाम यानी अनामी तक ले जाएंगे । तुम अपने मन की चौकीदारी करते रहो कि वह क्या क्या गुनाबन पैदा कर रहा है और किन-किन वस्तुओं के पीछे दौड़ रहा है । भजन के समय मन को केवल भजन ही करना चाहिए और कुछ नहीं । मन सुरत (जीवात्मा) का साथ दे देगा तो रास्ता आसान हो जाएगा।


●● जयगुरुदेव ●● 

शेष क्रमशः पोस्ट न. 6 में पढ़ें  👇🏽


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ