जयगुरुदेव : तुलसी वाणी 33.

जयगुरुदेव  :  तुलसी वाणी  32. 

**********************

✰  भक्तों यानी साधकों के लक्षण

सुनहु राम अब कहौ निकेता। बसहु जहां सिय लषण समेता। 
जिनके श्रवण समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुलभ सरि नाना। 
भरहिं निरन्तर होहि न पूरे। तिनके हिय तुम कह गृह रूरे। 
लोचन चातक जिन करि राखे। रहहिं दरश जलधर अभिलाषे ।।  

तुमहिं निवेदित भोजन करहि। प्रभु प्रसाद पट भूषण धरहिं। 
शीश तबहि सुर गुर द्विज देखी। प्रीत सहित कर विनय विशेषी। 
कर नित करहिं राम पंद पूजा। राम भरोस हृदय नहि दूजा । 
चरण राम तीरथ चलि जाही। राम बसहु तिनके मन माही।। 

मन्त्रि राज नित जपहि तुम्हारा। पूजहिं तुमहिं सहित परिवारा।
तर्पण होम करहिं नित नाना। बिप्र जिवाय देहि बहु दाना।
तुम ते अधिक गुरूहिं जिय जानी। सकल भाव देवहि सनमानी ।। 

सब कर मागहि एक फल। राम चरण रति होउ। 
तिनके मन मन्दिर बसहु। सिय रघुनन्दन दो।।

काम क्रोध मद मान न मोहा। लोभ न छोह न राग न द्रोहा।
जिसे कपट न दम्भ न माया। तिनके हृदय बसहु रघुराया।
सबके प्रिय सबके हितकारी। सुख दुख सरिस प्रशंसा गारी।
कहहिं सत्य प्रिय बचन विचारी। जागत सोवत शरण तुम्हारी।। 

जननी सम जानहिं पर नारी। धन पराय विष ते विष भारी।
जे हरसहिं पर सम्पति देखी। दुखित होहि पर बिपति बिशेषी ।
अवगुण तजि सबके गुण गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं।
नीति निपुण जिनकी जग लीका। घर तुम्हारा तिनकर मन नीका।। 

गुण तुम्हारा समुझहिं निज दोसू। जेहिं सब भाति तुम्हार भरोसू।
राम भक्ति प्रिय लागहिं जेहहीं। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।
जाति पाति धन धर्म बड़ाई। प्रिय परिवार सदन समुदाई।
सब तजि तुम्हहिं रहे लव लाई। तिनके हृदय बसहु रघुराई।। 

मन कम बचन छाड़ि चतुराई। भजतहि कृपा करहिं रघुराई। 
निर्मल मन जग सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।

निन्दा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कन्ज । 
ते सज्जन मम प्राण प्रिय, गुण मन्दिर सुख पुन्ज ।। 
कर्म बचन मन छाड़ि छल, जब लग जन न तुम्हार। 
तब लग सुख सपनेहुँ नहीं, किये कोटि उपचार ।।


✰  भक्ति की महिमा

राम भक्ति चिन्तामणि सुन्दर। बसै गरूण जाके उर अन्तर ।।
परम प्रकाश रूप दिन राती। नहि कछु चहिये दिया घृत बाती ।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ।।
खल कामादि निकट नहीं जाहीं। बसै भक्ति मणि जेहि उन माहीं ।।
ब्यापहि मानस रोग न भारी। जिनके बस सब जीव दुखारी ।।
राम भक्ति मणि उन बस जाके। दुख लवलेश न सपनेहुँ ताके ।।

चतुर शिरोमणि ते जग माहीं। जे मणि लागि सुयतन कराहीं ।।
सो मणि यद्यपि प्रगट जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ चहई ।।
सुगम उपाय पायबे केरे। नर हत भाग्य देत भट भेरे ।।
पावन पर्वत वेद पुराना। राम कथा रूचिराकर नाना ।।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ज्ञान विराग नयन उरगारी ।।

भाव सहित जो खोदै प्रानी। भाव भक्ति मणि सब सुख खानी ।।
राम भक्ति निरूपम निरूपाधी। बसै जासु उर सदा अबाधी ।।
भक्ति करत बिनु यतन प्रयासा। संसृति मूल अविद्या नासा ।।
अस हरि भक्ति सुगम सुखदाई। को अस मूढ़ न जाहि सुहाई ।।
निज अनुभव मैं कहहुँ खगेशा। बिनु हरि भजन न जाहि कलेशा ।।

कबहुँ काल नहिं व्यापहिं तोही। सुमिरहु भजहु निरन्तर मोहीं।।
नट कृत विकट कपट खगराया। नट सेवकहि न व्यापहि माया ।।


सो नर इन्द्रजाल नहिं भूला। जापर होई सो नट अनुकूला ।। 
काल कर्म नहिं व्यापहि ताही। रघुपति चरण प्रीति अति जाही ।।

तुम कृपालु जापर अनुकूला। ताहि न व्याप त्रिविध भव शूला ।। 
तब ते मोहि न व्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया।। 
प्रभु प्रेरित तेहि व्यापहि विद्या। हरि सेवकहिं न व्यापि अविद्या ।। 
यहि बिचारि पंडित मोहि भजहीं। पायेहु ज्ञान भक्ति नहिं तजहीं।। भक्ति ही सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया ।। 

भक्ति हीन सुख कवनेहुँ काजा। अस बिचारि बोलेउ खगराजा ।। 
भक्ति हीन सुख गुण सब ऐसे। लवण बिना बहु व्यंजन जैसे ।। 
भक्ति हीन बिंरचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई ।। भक्तिवन्त अति नीचहु प्राणी। मोहिं प्राण प्रिय सुनु मम बाणी ।। 

जे अस प्रभु न अजहिं भ्रम त्यागी। ज्ञान रंक मति मन्द अभागी ।।
सुनु खगेश हरि भक्ति बिहाई। जो सुख चाहहि आन उपाई ।। 
ते शठ महा सिन्धु बिनु तरणी। पैरि पार चाहत जड़ करनी ।।

सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारि।
भजहु राम पद पंकज, अस सिद्धान्त विचारि ।।
विरति चर्म अस ज्ञान पद, लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाई सोई हरि भगति, देखु खगेश बिचारि ।।


✰  नाम की महिमा

राम नाम मणि दीप धरू जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरो, जो चाहसि उजियार ।।
नाम जीह जपि जागहिं जोगी। बिरति विरंचि प्रपंन्च बियोगी ।
ब्रह्मा सुखहिं अनुभवहि अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा।
जाना चहहि गूढ़ गति जेऊ। नाम जीह जपि जानहिं तेउ।

साधक नाम जपहि लव लाये। होहि सिद्ध मणि माणिक पाये।
अगुण सगुण दोउ सुगम नाम ते। कहँहु नाम बड़ ब्रह्म राम ते।


नाम लेत भव सिन्धु सुखाहीं। करहु बिचार सुजन मन माहीं।
सेवक सुमिरत नाम सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दल जीती।
शुक सनकादि सिद्ध मुनि योगी। नाम प्रसाद ब्रह्म सुख भोगी।
नारद जानेऊ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरिहर प्रिय आपू।
नाम जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भक्ति शिरोमणि भे प्रहलादू।

ध्रुव सगलानि जपेउ हरि नामू। पायउ अचल अनूपम ठामू ।।
सुमिरि पवन सुत पावन नामू। अपने वश करि राखेउ रामू ।।
अपर अजामिल गज गाणिकाऊ। भये मुक्त हरि नाम प्रभाऊ ।।
कहाँ कहाँ लगि नाम बड़ाई। राम न सकहिं नाम गुण गाई ।।

राम नाम को कल्पतरू, कलि कल्याण निवास ।
जो सुमिरत भाग ते, तुलसी तुलसीदास ।।
चहुँ युग तीन काल तिहुँ लोका। भये नाम जपि जीव विशोका ।।
वेद पुराण सन्त मत एहूँ। सकल सुकृत फल राम सनेहू ।।

नहिं कल कर्म न भक्ति विवेकु। राम नाम अवलम्बन एकू ।।
राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता ।।
जासु नाम सुमिरत एक बारा। उतरहि नर भव सिन्धु अपारा ।।
उल्टा नाम जपत जग जाना। बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना ।।

सनमुख होय जीव मम जबही। जन्म कोटि अघ नासौ तबहीं।।
ऐसे ही बिनु हरि भजन खगेशा। मिटहिं न जीवन केर कलेशा ।।
कलियुग केवल हरि गुण गाहा। गावत नर पावहि भव थाहा ।।
कलियुग योग यज्ञ नहिं ज्ञाना। एक अधार नाम गुण गाना ।।

सब भरोस तजि जो भज रामहिं। प्रेम समेत गाव गुण ग्रामहिं ।।
सो भव तरू कछु संशय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं ।।
यहि कलि काल न साधन दूजा। योग यज्ञ जप तप ब्रत पूजा ।।
तामस बहुत रजो गुण थोरा। कलि प्रभाव विरोध चहुं ओरा ।।

रामहि सुमिरिय गाइअ रामहि। सन्तत सुनिय राम गुण ग्रामहि ।।
तब लगि कुशल न जीव कहं, सपनेहु मन विश्राम।
जब लगि भजत न राम कहं, शोक धाम तजि काम ।।


सुनु मुनि सन्तन के गुण कहहूँ। जेहिते मैं उनके बश रहहूँ ।।
बट विकार जिन अनघ अंकामा। अचल अकिंचन शुचि सुख थामा।।
अमित बोध अनीह मित भोगी। सत्य सार कवि कोविद योगी ।।
सावधान मान मद हीना। धीर भक्ति पथ परम प्रवीना ।।

गुणागार संसार दुख, रहित विगत सन्देह।
तजि मम चरण सरोज प्रिय, तिन कंह देह न गेह।।
निज गुण श्रवण सुनत सकुचाहीं। पर गुण सुनत अधिक हर्षाहीं ।।
सम दम नियम नीति नहिं बोलहिं। परूष बचन कबहूँ नहि बोलहि ।।

सम शीतल नहिं त्यागहि नीती। सरल स्वभाव सबहिं सन प्रीती ।।
जप जप ब्रत यम संयम नेमा। गुरू गोविन्द विप्र पद प्रेमा ।।
श्रद्धा क्षमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया ।।
विरति विवेक विनय विज्ञाना। बोध यथारथ बेद पुराना ।।

दम्भ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहि कुमारग पाऊ ।।
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत लीला ।।
सुनु मुनि साधुन के गुण जेते। कहि न सकहि सारद श्रुति लेते ।।
उमा संत की यही बड़ाई। मंद करत जो करे भलाई ।।

संत असंत की असि करणी। जिमि कुठार चन्दन आचरणी ।।
कोमल चित दीनन पद दाया। मन बचु कर्म मम भक्त अमाया ।।
सबहिं मानप्रद आपु अमानी। भरत प्राण सम वे मम प्राणी ।।
विगत काम मम नाम परायन। शान्ति विरति विनती मुदितायन ।
शीतलता सरलाता मयत्री। द्विज पद प्रेम धर्म जनयित्री ।।

यह सब लक्षण बसहिं जासु उर। जानहु तात सत संतत फुर ।।
सरल स्वभाव न मन कुटिलाई। यथा लाभ सन्तोष सदाई ।।
मोर दास कहाय संत आसा। करै तो कहहुं कहा विश्वासा ।।
बहुत कहीँ कहा कथा बढ़ाई। यह आचरण वश्य मैं भाई ।।

बैर न विग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा ।।
अनारम्भ अनिकेत अनामी। अनघ अरोप दक्ष विज्ञानी ।।
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृण सम विषय स्वर्ग अपवर्गा ।।
भक्ति पक्ष हठ नहिं शठताई। दुष्ट कर्म सब दूरि बिहाई ।। 

अस सज्जन मम उर बस कैसे। लोभी हृदय बसत धन जैसे ।। 
जननी जनक बन्धु सुत दारा। तन धन धाम सुहृद परिवारा ।। 
सबकी ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बांधि बटि डोरी ।। 
सम दर्शी इच्छा कछु नाहीं। हर्ष शोक भय नहिं मन माहीं ।। 

सन्त हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह पै कहई न जाना ।।
निज परिताप द्रवै नवनीता। पर दुःख द्रवहिं सो सन्त पुनीता ।। 
संत बिटप सरिता गिरि धरणी। परिहित हेतु इनन्ह की करणी।। 
तेहिते कहहिं सन्त श्रुति टेरे। परम अकिंचन प्रिय हिय केरे ।।

मम गुण ग्राम नाम रत, गत ममता मद मोह। 
ताकर सुख सोई जानहिं, चिदानन्द संदोह ।।

जयगुरुदेव 
शेष क्रमशः अगली पोस्ट 34. में..


पिछली पोस्ट न. 32. की लिंक... 

Parmarthi vachan sangrah 
tulsi vani



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ