जो परलोक यहां सुख चहहू। सुनि मम बचन हृदय दृढ़ गहहू ।।
मातु पिता गुरू प्रभु की बानी। बिनहि विचार करिय शुभ जानी ।।
पुत्रवती युवती जग सोई। रघुपति भक्ति जासु सुत होई ।।
नतरू बांझ भलि बादि बियानी। राम विमुख सुत ते हित हानी ।।
साधु समाज न जाकर लेखा। राम भक्ति महं जासू न रेखा ।।
जाय जियत जग सो महि भारू। जननी यौवन विटप कुठारू ।।
सब जग ताहि अनल ते ताता। जो रहुबीर बिमुख सुनु भ्राता ।।
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करै सेा तस फल चाखा ।।
शुभ अरू अशुभ कर्म अनुहारी। ईश देह फल हृदय बिचारी ।।
जे अपराध भक्त पर करई। राम रोष पावक सो जरई ।।
का वर्षा जब कृषि सुखाने । समय चूँकि पुनि का पछताने ।।
लोभी लोलुप कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई ।।
सेवक सुख चह मान भिखारी। व्यसनी धन शुभ गति व्यभिचारी ।।
संग ते यती कुमन्त्र ते राजा। मान ते ज्ञान पान ते लाजा ।।
राजनीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सत कर्मा ।।
विद्या बिनु विवेक उपजाये। श्रम फल पढ़े किये अरू पाये ।।
वादि बसन बिनु भूषण भारू । वादि विरति बिनु ब्रह्म विचारू ।।
सरूज शरीर बादि सब भोगा। बिनु हरि भगति जाय तप योगा ।।
जाय जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सब बिनु रघुराई ।।
राम भक्ति तज चह कल्याना। सो नर अधम श्रींगाल समाना ।।
साह न राम प्रेम बिनु ज्ञाना। कर्णधार बिनु जिमि जल याना ।।
को न कुसंगति पाय नसाई। रहै न नीच मते चतुराई ।।
परहित बस जिनके मन मोही। तिन कह जग दुर्लभ कछु नाहीं ।।
सुनहु उमा 'ते लोभ अभागी। हरि तजि होहिं विषय अनुरागी ।।
सिमिट सिमिट जल भरहिं तलावा। जिमि सद्गुण सज्जन पह आवा ।।
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।।
ऊसर वर्षे तृण नहिं जामा। सन्त हृदय जस उपज न कामा ।।
सुखी मीन जह नीर अगाधा। जिमि हरि शरण न एकौ बाधा ।।
जिमि सरिता सागर महं जाहीं। यद्यपि ताहि कामना नाहीं ।।
तिमि सुख संपति विनहि बुलाये। धर्मशील पहं जाहि सुभाये ।।
नाथ विषम सम मद कुछ नाहीं। मुनि मन मोह करहिं क्षण माहीं ।।
अतिशय प्रबल देव तव माया। छुटहि तबहि करहु जब दाया ।।
लोभ पाश जेहि गर न बधाया। सो नर तुम समान रघुराया ।।
तजि माया सेड्य परलोका। मिटहि सकल भव सम्भव शोका ।।
सोई गुणज्ञ सोइ बड़ भागी। जो रघुबीर चरण अनुरागी ।।
जन्म मरण सब दुख सुख भोगा। हानि लाभ प्रिय मिलन वियोगा ।।
काल कर्म बस होहि गुसाई। परवस राति दिवस की नाई ।।
सुख हर्षहि जड़ देख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं ।।
जो रघुवीर चरण चित्त लावै। तेहि सम धन्य न आन कहावै ।।
जहां सुमति तहं सम्पति नाना। जहां कुमति तह बिपति निदाना ।।
बरू भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देई विधाता ।।
कायर मन कर एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा ।।
शठ सन विनय कुटिल सन प्रीती। सहज कृपण सन सुन्दर नीती ।।
ममता रत सम ज्ञान कहानी। अति लोभी सम विरति बखानी ।।
क्रोधहिं सम कामहिं हरि कथा। ऊसर बीज बये फल यथा ।।
शिव द्रोही मम दास कहावै। सो नर सपनेहूं मोहि नहि भावै ।।
शंकर विमुख भक्ति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ गति थोरी ।।
गुरू बिनु होय कि ज्ञान, ज्ञान कि होय बिराग बिनु।
गावहिं वेद पुरान सुख कि लहहिं हरि भक्ति बिनु ।।
बिनु सन्तोष न काम नसाही। काम अछत सुख सपेहु नाहीं ।।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरू कबहु कि जामा ।।
बिनु विज्ञान की समता आवै। कोउ अवकाश कि नभ बिनु पावै ।।
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गन्ध कि पावै कोई ।।
बिनु तप तेज कि करू बिस्तारा। जल बिनु रस कि होई संसारा ।।
शील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गुसांई ।।
निज सुख बिनु मन होइ कि धीरा। परस कि होय विहीन समीरा ।।
कवनेहु सिद्धि कि बिनु विश्वासा। बिपु हरि भजन न भव भय नासा ।।
बिनु विश्वास भक्ति नहिं, तेहि बिनु द्रवहिं न राम।
राम कृपा बिनु सपनेहूं, जीव न लहहि विश्राम ।।
गुरू बिन भव निधि तरै न कोई। जो बिरंचि शंकर सम होई ।।
जप तप मख सम दम व्रत दाना। विरति विवेक योग विज्ञाना ।।
सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पाये क्षेमा ।।
सोई पावन सोई सुभग शरीरा। जो तन पाय भजयि रघुबीरा ।।
राम विमुख लहि विधि सम देही। कवि कोविद न प्रशंसहि तेही ।।
देखऊं सब करि कर्म गोसाई। सुखी न भयउ अबहि की नाई ।।
गुरू शिष अन्ध बधिर कर लेखा। एक न सुनै एक नहिं देखा ।।
हरै शिष्य धन शोक न हरई। सो गुरू घोर नरक मह परई ।।
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहि करहि अधम कर संगा।।
जो सठ गुरू सन ईर्षा करहीं। रौरव नर्क कल्प शत परहीं।।
राखै गुरू जो कोप विधाता। गुरू विरोध नहीं कोऊ जग त्राता ।।
कामी पुनि कि रहे अकलंका। पर द्रोही कि होई निःशका ।।
वंश कि रह द्विज अपहित कीन्हें। कर्म कि होहि स्वरूपहि चीन्हें ।।
काहू सुमति कि खल संग जामी। शुभ गति पाव कि परतियगामी ।।
राज कि रहै नीति बिनु जाने। अघ कि रहै हरि चरित बखाने ।।
भव कि परहि परमारथ बिन्दक। सुखी कि होहि कबहूं पर निन्दक ।।
पावन यश कि पुण्य बिनु होई। बिन अध अयश की पावै कोई ।।
लाभ किं कछु हरि भक्ति समाना। जोहि गावहिं श्रुत संत पुराना ।।
हानि कि जग यहि सम कछु भाई। भजिय न रामहि नर तनु पाई।।
अध कि होई तामस सम आना। धर्म की दया सरिस हरियाना ।।
जह लग साधन वेद बखानी। सब कर फल हरि भक्ति भवानी ।।
राम चरण पंकज प्रिय जिनहीं। विषय भोग वश करहिं न तिनहीं ।।
तब लगि हृदय बसति खल जाना। लोभ मोह मत्सर मद माना।।
जब लगि उर न बसत रघुनाथा। थरे चाप शायक कटि माथा ।।
सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृग जल निरखि मरहु कत धाई ।।
अब सोई यतन करहु तुम ताता। देखउं नयन श्याम मृदु गाता ।।
तृषित निरखि रविकर भव वारी। जो मृगा इव फिरहिं दुखारी ।।
जहं तहं पथिक रहे थक नाना। जिमि-इन्द्रिय गण उपजे ज्ञाना।।
रस-रस सूख सरित रस पानी। ममता त्यागि करहि जिमि ज्ञानी ।।
शरदातप निशि शशि अपहरई। सन्त दरश जिमि पातक टरई ।।
उदासीन नित रहिय गोसाई। खल परिहरिय स्वान की नाई ।।
✰ दोहा
काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक कर पंथ।
सब परिहरि रघुबीर पद, भजहु भजहिं जेहि सन्त।
सचिव, वैद्य, गुरू तीनि जो प्रिय बोलहिं भय आश।
राज धर्म तनु तीन कर, होहि बेगि ही नाश।
भूमि जीव संकुल रहे, गये सरद ऋतु पाय।
सतगरू मिले ते जाहि जिमि, संशय भ्रम समुदाय।
✰ सतसंग की महिमा
बन्दौ प्रथम महिसुर चरणा। मोह जनित संशय सब हरणा।
सुजन समाज सकल गुण खानी। करौ प्रणाम सप्रेम सुबानी।
साधु चरित शुभ सरिस कपासू। निरस विशद गुणमय फल जासू।।
जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा। बन्दनीय जेहि जग यश पावा।
मुद मंगलमय सन्त समाजू। जो जग जंगम तीरथ राजू ।
राम भक्ति जहं सुरसरि धारा। सरस्वती ब्रह्म विचार प्रचारा।
विधि निषेधमय कलिमल हरणी। कर्म कथा रवि नन्दिनी वरणी।
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल बेनी।
बट विश्वास अचल निज धर्मा। तीरथ राज समाज सुकर्मा।
सबहि सुलभ सब दिन सब देशा। सेवत सादर समन कलेशा।
अकथ अलौकिक तिरथ राऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ।
सुन समुझहि जन मुदित मन, मज्जहिं अति अनुराग।
लहै चारि फल अछत तनु, साधु समाज प्रयाग ।।
मज्जन फल पेखिय तत्काला। काक होहिं पिक बकहु मराला।
सुनि आश्चर्य करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई।
बाल्मीकि नारद घट योनी। निज निज मुखन कही निज होनी।
जलचर थलचल नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना।
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि यतन जहां जेहि पाई।
सो जानब सतसंग प्रभाऊ । लोकहु वेद न आन उपाऊ ।
बिनु सतसंग विवेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।
सतसंगति मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला।
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परसि कुधात सुहाई।
विधिवश सुजन कुसंगति परहीं। फणि मणि सम निज गुण अनुसरहीं।
विधि हरिहर कवि कोविद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी।
सो मो सन कहि जात न कैसे। साक वणिक मणिगण गुण जैसे।
बन्दी संत समान चित हित अनहित नहि कोय।
अंजलि गत शुभ सुमन जिमि, सम सुगन्ध कर दोय।
संत सरल चित जगह हित, जानि स्वभाव सनेहु।
बाल विनय सुनि करि कृपा, राम चरण रति देहु।
भक्ति स्वतन्त्र सकल गुनखानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ।।
पुण्य पुन्ज बिनु मिलहि न सन्ता। सत संगति संसृति कर अन्ता ।।
सब कर फल हरि भक्ति सुहाई। सो बिनु संत न काहू पाई ।।
सत संगत दुर्लभ संसारा । निनिष दण्ड भरि एकी बारा ।।
बड़े भाग्य पाइय सतसंगा। बिनहि प्रयास होय भव भंगा ।।
अब मोहि भा भरोस हनुमन्ता। बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं सन्ता ।।
संत विशुद्ध मिलहि पुनि तेही। राम कृपा करि चितवहि जेही ।।
जब बहु काल करिय सतसंगा। तबहि होहि सब सशय भंगा ।।
मोरे मन प्रभु अस विश्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा ।।
राम सिंधु धन सज्जन धीरा। चन्दन तरू हरि संत समीरा ।।
अस विचार जोड़ कर सतसंगा। राम भक्ति तेहि सुलभ बिहंगा ।।
गिरजा सन्त समागम, सम न लाभ कछु आन ।।
बिनु हरि कृपा न होय सो, गावहि वेद पुरान ।।
संत संग अपवर्ग कर, कामी भव कर पंथ ।।
करहि संत कवि कोविद, श्रुति पुराण सद ग्रन्थ ।।
धन्य घरी सोई जब सतसंगा। धन्य जन्म द्विज भक्ति अभंगा ।।
राम कथा के तेई अधिकारी। जिनके सतसंगति अति प्यारी ।।
सदा सुनहि सादर नर नारी। ते सुर नर मानस अधिकारी।।
जो नहाई चह यहि सर भाई। तो सतसंग करहु मन लाई ।।
काम क्रोध मद लोभ नसावन। विमल विवेक विराग नसावन ।।
सादर सज्जन पान किये ते। मिटहि पाप परताप हिये ते।।
जिन्ह यह वारि न मानस धोये। ते कायर कलिकाल बिगोये ।।
राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस विशेष जाना तिन नाहीं ।।
राम कथा सुन्दर करतारी। संशय विहंग उड़ावन हारी।।
बिनु सतसंग न हरि कथा ते बिनु मोह न भाग।
मोह गये बिनु राम पद, होई न दृढ़ अनुराग।
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिय तुला इक अंग।
तुलै न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सतसंग ।।
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