۞ गुरु से प्यार तो सुमिरन से क्यूं इनकार
एक सेवादार बड़े प्रेम से गुरु घर में सेवा करता था। बाबाजी उनकी सेवा से बहुत ख़ुश थे। एक दिन बाबाजी ने कहा कि:- "भाई तू बाहरी सेवा तो बहुत करता है, भजन सुमिरन भी किया कर।"
उस सेवादार ने कहा कि:- *बाबा जी मेरा मन भजन सुमिरन में नहीं लगता।*
बाबा जी ने कहा कि:- *_"भाई, तु मेरा हुक्म मानेगा तो तेरा मन भी भजन सुमिरन में लग जाएगा। बस तू सुबह 3 बजे उठा कर और नीचे ज़मीन पर टाट पट्टी या दरी बिछाकर उस बैठ जाया कर। 5 मिनट भजन सुमिरन करने के बाद उठकर सो जाया कर।
सेवादार ने कहा कि:- *"ये तो बहुत आसान है, मैं रोज ऐसा करुंगा। वह रोज तीन बजे उठता और 5 मिनट भजन सुमिरन करके सो जाता। एक दिन मन में ख्याल आया कि मैं रोज सुबह उठता हूं और सिर्फ पांच मिनट ही भजन सुमिरन करता हूं क्यूं ना कुछ समय और बैठा करुं, और वह धीरे धीरे भजन सुमिरन करने का समय बढ़ाता गया।*
*सतगुरु का हुक्म मानने के कारण धीरे धीरे ही सही उसका मन भी भजन सुमिरन में लगने लगा और एक दिन ऐसा भी आया जब वो ढ़ाई घंटे से ज्यादा भजन सुमिरन करने लगा।
हमारी हालत भी ऐसी है, अगर हम सतगुरु का हुक्म मानेंगे तो हमारा मन भी भजन सुमिरन में लग जाएगा। मगर अफसोस है कि हम हुक्म ही नहीं मानते। बाबाजी ने इतनी छुट दे रखी है कि _"मन लगे, चाहे ना लगे। हुक्म समझकर बैठो ड्यूटी समझकर बैठो_" चाहे दस मिनट या बीस मिनट बिना नागा भजन सुमिरन करो।
जरा अपना हृदय टटोल कर देखो कि क्या हम वास्तव में सत्संगी है ? अगर हम सत्संगी बनना चाहते हैं तो आओ, रोज़ दस मिनट, पन्द्रह मिनट, घंटा, दो घंटा, जितना भी समय मिले बिना नागा भजन सुमिरन करें और सतगुरु के हुक्म में रहते हुए जीवन के सभी फर्ज़ निभाएं और अपना भी कुछ कमाएं( नाम की कमाई)*
जयगुरुदेव
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Jaigurudev