वक्त सतगुरु परम पूज्य परम सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज की अपार दया मौज हम सभी सतसंगी प्रेमियों पर हो रही है और तन मन धन की सेवा ले कर हमारे परमार्थ में इजाफा कर रहे हैं।
देखा जाए तो संतमत में मंदिर का कतई कोई स्थान नहीं है, बाहरी पूजा अर्चना का तो कोई प्रावधान ही नहीं है, जैसा कि परम पूज्य हजूर महाराज जी अपने सत्संग वचनों में फरमाते हैं कि यह मानव तन ही मंदिर है और इसी में ही उस महाप्रभु की प्राप्ति होती है। इसी में साधन कर मोक्ष मुक्ति पायी जाती है।
लेकिन प्रायः यह भी देखा गया है कि जब से संतमत प्रारंभ हुआ तब से उस समय के संत महापुरुष ने अपने सतगुरु की यादगार में एक चिन्ह यानी की मंदिर अवश्य बनवाया है।
क्योंकि संतमत में सतगुरु का स्थान सर्वोपरि होता है अब गुरु की मूर्ति स्थापित कर उनकी पूजा करना शुरु करें तो यह बाहरी आडंबर में फंसना होगा और जो मुख्य काम है सुमिरन, ध्यान भजन, उससे दूर हटना होगा।
इस कारण से सतगुरु की मूर्ति स्थापित नहीं की जाती है। लेकिन अपने धुर धाम से जीवात्माओं के उद्धार के लिए इस मृत्यु लोक में आने वाले सतपुरुष के अंश यानि की संत सतगुरु की याद हमेशा बनीं रहे, उनके उपदेश सदियों तक लोगों को याद रहे, उनके काम गुरु भक्तों को हमेशा प्रेरित करते रहें, सिर्फ इसीलिए संत महापुरुष अपने सतगुरु के स्मृति में, उनकी यादगारी में एक चिन्ह यानी स्थान बनाते हैं।
आगे अगर हम देखें तो निज धाम वासी परम पूज्य परम संत बाबा जयगुरुदेव जी महाराज ने अपनी कर्म स्थली मथुरा उत्तर प्रदेश में अपने गुरु यानी की पूज्य पाद दादा गुरुजी महाराज (चिरौली वाले पंडित जी) की स्मृति में एक भव्य चिन्ह तैयार किया और अब उन्हीं के पद चिन्हों पर चलते हुए वक्त सतगुरु परम पूज्य परम संत बाबा उमाकान्त जी महाराज भी अपने गुरुजी महाराज की यादगारी में एक चिन्ह यानी की बाबा जयगुरुदेव मंदिर, बावल आश्रम, कसौला चौक, रेवाड़ी जिला, हरियाणा में बना रहे हैं।
परम पूज्य हुजूर महाराज जी ने हमें इसके बारे में काफी-कुछ सत्संग वचनों में बतलाया है, समझाया भी है कि किस तरह से यह चिन्ह सदियों तक विलक्षण महापुरुष की यादगार में उनके कृतित्व और व्यक्तित्व के बारे में बतलाता रहेगा। लोग यहां से दया दुआ और बरकत लेंगे। यह एक अद्भुत और अद्वितीय स्थान होगा।
इस चिन्ह के निर्माण कार्य के लिए परम पूज्य हुजूर महाराज जी हम सभी को तन मन और धन की सेवा का आदेश समय समय पर दे रहे हैं। नये पुराने नामदानी सतसंगी प्रेमी आदेश का पालन भी कर रहे हैं।
इसी सेवा के संदर्भ में एक बहुत पुरानी बात संगत के वरिष्ठ टाटधारी गुरुभाई साहब ने बतलाई कि जब निज धाम वासी परम पूज्य परम संत बाबा जयगुरुदेव जी महाराज अपनी कर्मस्थली में पूज्य पाद दादा गुरुजी महाराज का चिन्ह बनवा रहे थे, तब एक दिन गुजरात निवासी कोई सेठ अपने लाव लश्कर के साथ दिल्ली जाते हुए वहाँ रुक गए।
कुछ पूर्व जन्म के पुण्य कर्म, कुछ भाव भक्ति और सबसे बढ़ कर कुल मालिक की दया मौज हुई और वहीं पर परम पूज्य बाबा जयगुरुदेव जी महाराज के दर्शन हो गए। बाद में चल रहे मंदिर निर्माण कार्य को देखा तो अभिभूत हो गए। उनके मन में सेवा के भावों का संचार हुआ, स्वाभाविक है यह तो होना ही था।
उन्होेंने अपने सहयोगियों को इशारा कर कुछ कहा तो सहयोगी बड़ी साइज के दो वीआईपी सूटकेस लेकर के आए। सेठ जी ने उन दोनों सूटकेसों को पूज्य गुरुजी महाराज के सामने रखा और हाथ जोड़ कर कहा कि इस मंदिर को देख कर मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ, यह मेरी छोटी सी सेवा है इसे ले लीजिए।
लेकिन परम पूज्य गुरुजी महाराज ने कोई तवज्जो ही नहीं दी। तब उन्होंने दोनों सूटकेसों को खोल करके रख दिए। दोनों में एक हजार के नोटों की गड्डियां लबालब भरी हुई थीं। (उस समय पांच सौ और एक हजार के नोट प्रचलन में थे।)
यह नजारा देख कर सबकी आंखें चौंधियां गईं। लेकिन परम पूज्य गुरुजी महाराज ने नजरें फेर लीं। फिर सेठ जी ने अर्जी लगाई कि इसे स्वीकार कर लीजिए और कोई कमी होगी तो मैं उसे भी पूरा करने की कोशिश करूंगा।
तब परम पूज्य गुरुजी महाराज ने कहा कि बच्चा! इसे ले जाओ। यह तुम्हारे काम आ सकता है।
परम पूज्य गुरुजी महाराज उठ कर चल दिए और सेठ जी भी मायूस होकर चले गए। वहां जो तमाशबीन प्रेमी मौजूद थे उन्हें बुरा लगा। देखो! स्वयं लक्ष्मी खुद चल करके आईं लेकिन मना कर दिया, ठुकरा दिया और सेवा के लिए जगह-जगह रजिस्टर भेजते हैं।
गुरुमुख सेवादार प्रेमी समझ गये कि इसमें कोई राज है, अब संत ही जाने उनकी लीला। बात आई गई हो गई, सेवाएं बदस्तूर चलती रहीं। कुछ समय बाद पता चला कि गुजरात की एक प्राकृतिक आपदा में उन सेठ जी का सब कुछ खत्म हो गया सिर्फ जान ही बच पाई।
संत के दर्शन किए थे इसलिए जान बची तो लाखों पा लिए और पता नहीं किस तरह की कमाई का पैसा होगा? उसे मन्दिर निर्माण में कैसे लगाते?
दरअसल यह एक जरिया भी होता है सभी जीवों को दया दुआ और बरकत देने का। अब जब यह चिन्ह बनाया जा रहा है तो उसमें वक्त सतगुरु अपने सत्संगी प्रेमियों की मेहनत ईमानदारी की कमाई का दशांश यानी दसवां हिस्सा लगवा रहे हैं।
इससे उनके प्रेमियों के धन की सफाई तो होती ही होती है, कर्म कर्जों का भी लेनदेन होता है और परमार्थ बनता है। यह कहा जाए कि यह संत महात्माओं का गोरख धंधा भी होता है। जिसे कोई समझ नहीं पाता है।
अब जैसा की होता आया है कि संत महापुरुषों का लिया गया संकल्प तो पूरा होता ही होता है।
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गुरु राजी तो करता राजी। काल करम की चले न बाजी।
जयगुरुदेव
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