*दिखावे की भक्ति नहीं करनी चाहिए*

जयगुरुदेव

16.10.2023
प्रेस नोट
लखनऊ (उ.प्र.) 

*सन्त बाबा उमाकान्त जी ने नारद के प्रसंग से समझाया भगत किसको कहते हैं*

*दिखावे की भक्ति नहीं करनी चाहिए*


किस्से कहानियों से बड़ी गहरी बात बताने समझाने वाले, काल के देश में कर्मों के कर्जे और पूरा अकाउंट समझने और लेने-देने के रिश्ते की गुत्थी को सुलझाने वाले, इस समय के युगपुरुष, पूरे समरथ सन्त सतगुरु, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त महाराज जी ने 3 मार्च 2019 दोपहर लखनऊ (उ.प्र.) में दिए व अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में बताया कि 

भक्ति दिखावे की नहीं, पक्की भक्ति करनी चाहिए। नारद विष्णु भगवान के बड़े भक्त थे, घूमते हुए जा रहे थे। नारद जी का बहुत सम्मान था, हस्तरेखा का भी ज्ञान था। ऐसे चेहरा देख कर के बता दे थे लोगों को। नारद जी विद्वान थे। तो जहां भी कहीं रुक जाते हैं तो उनका स्वागत सत्कार तो होना ही होना था। तो उधर से जा रहे थे तो एक पंडित जी ने नारद जी को बुलाया, बढ़िया भोजन कराया, आदर के साथ रखा। 

जब चलने को हुआ तो पंडितानी, पंडित से बोली कि कुछ कहो। उन्होंने कहा, क्या कहें। बोली कुछ महाराज से प्रार्थना करो। नारद जी बोले, क्या पूछ रहे हो? पंडित जी बोलो। तो बोले कि हमारे कोई बच्चा नहीं है। तो उन्होंने हाथ देखा, बोला कि तुम्हारे हाथ में तो बच्चे की रेखा ही नहीं है। तो बच्चा तो होना नहीं है तुम्हारे। ऐसा कह करके निराश करके नारद चले गए। बोला, नहीं लेना-देना होगा क्योंकि लेना-देना ही तो होता है। यह कर्मों को भोगने का संसार है, लेना-देना ही होता है। किसी का लड़का, बहु, पति काम नहीं आता है, दूसरे लोग काम आ जाते हैं तो लेना-देना होता है। जिसके साथ जितना लेना होगा, उतने ही समय तक वह रहता है। 

और जैसे ही वह कटता है, अलग हो जाता है। चाहे खट्टे तरीके से, लड़ाई-झगड़ा तलाक से हट गया। और मीठे तरीके से नौकरी व्यापार में कहीं दूर चला गया। मां-बाप को तकलीफ है तो पैर कौन दबायेगा? दवा कौन लाएगा? पड़ोसी। दूसरे लोग सेवा करते हैं। लड़का रुपया-पैसा तो भेज देगा लेकिन सेवा नहीं कर सकता है। ऐसे लेना-देना होता है। पंडित जी निराश हो गए। बोले नहीं होगा बच्चा। वहीं पर एक भगत रहता था। 

भगत वो जो एकदम से समर्पित होता है। विश्वास जिसको हो जाता है, उसके अंदर समर्पण आ जाता है। जिसको यह विश्वास हो जाता है कि अगर यह (गुरु) खुश हो जाएंगे तो हमारा कुछ (नुक्सान) नहीं होगा। जिसको यह विश्वास हो जाता है कि सब यही देखते हैं, यही करते हैं, सब उन्हीं का है, उसको तन मन धन संतन को अर्पण, कहा गया है। तो एक भगत भक्ति में लीन रहता था। उधर पहाड़ी पर अपना ध्यान, भजन करता रहता था। तो वह गांव में भोजन के समय उतरता था। उसको कोई न कोई लोग रोटी खिला देते थे। तो एक दिन आधे गांव तक चला, कोई पूछा नहीं। प्रारब्ध पर विश्वास था कि मिलेगा। लेकिन सोचा उसने कि कोई न देखा हो तो कुछ कहना, बताना, बोलना चाहिए। तो यही बोला कि जो एक रोटी खिला दे, उसके एक लड़का पैदा हो। 

जो दो खिलावे उसके दो पैदा हो। तीन खिलाने पर तीन पैदा हो और चार रोटी जो खिलावे उसके चार बच्चे पैदा हो। इतना बोलता हुआ पंडित जी के दरवाजे पर पहुंच गया। तो पंडितानी ने रोका। फटाफट हनुमान छाप चार मोटी रोटी बना लाई, खिलाई। चला गया। अब कुछ दिन बाद बच्चे पैदा होने लगे। एक के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा। कुछ दिनों बाद नारद उधर से घूमते हुए देखे, पूछे तो पंडित जी बोले, प्रभु आप ही के हैं, आपकी दुआ आशीर्वाद लग गया। आप बैठो, कुछ हमारा आदर सत्कार सम्मान स्वीकार करो। नारद बिगड़े, बोले कुछ नहीं। 

अब तो हम उनसे हिसाब मांगेंगे। जो पालन करता है। कहते हैं विधि का विधान मेरे हाथ में है, मैं ही सब कुछ लिख देता हूं, वही होता है। अब तो मैं उनके पास जा रहा हूं। तो नारद की दिव्य दृष्टि खुली हुई थी। इन्हीं दोनों के आंखों के बीच में तीसरी आंख है। आपकी भी है लेकिन कर्मों का पर्दा लगा हुआ है दिखाई नहीं पड़ता है। खोलने का तरीका आज (सतसंग में आये) नए लोगों को बताऊंगा, पुराने को दोहराऊंगा। दिव्य दृष्टि खुल जाती थी। 

ध्यान लगाते थे और ऊपरी लोको में निकल जाते थे। वहां जब पहुंचे, विष्णु ने जब उनको देखा तो विष्णु कराहने, चिल्लाने लगे, हमारे कलेजे में बड़ा दर्द हो गया। नारद बोले, प्रभु क्या हो गया? कैसे ठीक होगा? कहा कोई भगत हमको एक कटोरा खून दे दे और हम इस पर लेप कर दें तो ठीक हो जाएगा। बोले अभी लाता हूँ। फिर ध्यान भंग किए, और गए अच्छे-अच्छे कंठी बाँधने वालों के पास, दो घंटा बैठकर पाठ करने के वालों के पास, सब से कहा, विष्णु भगवान की तबीयत खराब हो गई है और आप अपना एक कटोरा खून दे दो तो उनकी तबीयत ठीक हो जाए। 

एक कटोरा कौन देगा? इतना खून निकल जाएगा तो मर जाएंगे। उधर से वही भगत आ रहा था। जब देखा तो इन को प्रणाम किया, पूछा, प्रभु आप कहां कटोरा लिए घूम रहे हो। बोले विष्णु भगवान की तबीयत खराब हो गई है तो उनकी तबीयत ठीक करने के लिए खून खोज रहा हूँ। भगत बोला खून मैं निकाल कर देता हूं। कहां दर्द है? तो बोले कलेजे में दर्द है। तो बोले- कलेजा निकाल के दे दूं। उन्होंने सोचा बगैर पूछे कलेजा कैसे ले जाऊं इसका? तो मैं पूछ कर आता हूं कि आपके लिए कलेजा लाना है या खून लाना है। तो कहा ठहरो। फिर ध्यान लगाए और वहां पहुंचे तो कहा प्रभु मिल गया। तो वो कह रहा है, कलेजा दे दें? तो कलेजा ले आऊँ या खून लाऊं। बोले कौन मिला? भगत मिला। पूछे आप? कहा भगत तो में भी हूँ। अरे नारद! तुम भगत होते तो तुम तुरंत खून न दे देते? तुम अपना कलेजा न दे देते? तो उसकी बात सत्य होगी या तुम्हारी बात सत्य होगी? तो उसकी बात सत्य होगी, वह भगत है। 


*प्रसंग से क्या सीख मिलती है*

बहुत से लोगों को इस बात की शंका रहती है कि हम भी भगत हैं लेकिन हमारे मन की बात क्यों नहीं होती है। हमारे मन की बात होनी चाहिए। हमको यह लाभ, फायदा होना चाहिए। लेकिन लेना-देना कैसा कहां है, यह तो सब समझ में नहीं आता है। जब दुनिया की तरफ से अपने मोह को थोड़ा भंग करोगे, उस मालिक गुरु पर विश्वास करोगे और भक्ति लाओगे, उसके ऊपर सर्वस्व लुटाने की कोशिश करोगे, न भी लुटा पाओ लेकिन मन में तो भाव इस तरह के रखोगे तभी आपका काम बन सकता है।


 भटकती युवा पीढ़ी को सही दिशा देने वाले परम सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज

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