जयगुरुदेव आध्यात्मिक सन्देश
संत कबीरदास मांसाहार को पूरी तरह से अनुचित मानते थे और उनके लिखे दोहे इसका प्रमाण हैं.....
मांस अहारी मानव, प्रत्यक्ष राक्षस जानि।
ताकी संगति मति करै, होइ भक्ति में हानि।।
मांस मछलिया खात हैं, सुरापान से हेत।
ते नर नरकै जाहिंगे, माता पिता समेत।।
मांस मांस सब एक है, मुरगी हिरनी गाय।।
जो कोई यह खात है, ते नर नरकहिं जाय।।
जीव हनै हिंसा करै, प्रगट पाप सिर होय।
निगम पुनि ऐसे पाप तें, भिस्त गया नहिं कोय।।
तिलभर मछली खायके, कोटि गऊ दै दान।
काशी करवट ले मरै, तौ भी नरक निदान।।
बकरी पाती खात है, ताकी काढी खाल।
जो बकरी को खात है, तिनका कौन हवाल।।
अंडा किन बिसमिल किया, घुन किन किया हलाल।
मछली किन जबह करी, सब खाने का ख्याल।।
मुला तुझै करीम का, कब आया फरमान।
घट फोरा घर घर दिया, साहब का नीसान।।
काजी का बेटा मुआ, उरमैं सालै पीर।
वह साहब सबका पिता, भला न मानै बीर।।
पीर सबन को एकसी, मूरख जानैं नाहिं।
अपना गला कटायकै, भिश्त बसै क्यों नाहिं।।
जोरी करि जबह करै, मुखसों कहै हलाल।
साहब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल।।
जोर कीयां जुलूम है, मागै ज्वाब खुदाय।
खालिक दर खूनी खडा, मार मुही मुँह खाय।।
गला काटि कलमा भरै, कीया कहै हलाल।
लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल।।
गला गुसाकों काटिये, मियां कहरकौ मार।
जो पांचू बिस्मिल करै, तब पावै दीदार।।
कबिरा सोई पीर हैं, जो जानै पर पीर।
जो पर पीर न जानि है, सो काफिर बेपीर।।
कहता हूं कहि जात हूं, कहा जो मान हमार।
जाका गला तुम काटि हो, सो फिर काटै तुम्हार।।
हिन्दू के दाया नहीं, मिहर तुरकके नाहिं।
कहै कबीर दोनूं गया, लख चैरासी मांहि।।
मुसलमान मारै करद सों, हिंदू मारे तरवार।
कह कबीर दोनूं मिलि, जावैं यमके द्वार।।
पानी पथ्वी के हते, धूंआं सुनि के जीव।
हुक्के में हिंसा घनी, क्योंकर पावै पीव।।
छाजन भोजन हक्क है, और दोजख देइ।
आपन दोजख जात है, और दोजख देइ।।
(शेष क्रमशः अगली पोस्ट 12. में...) 👇🏽
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Jaigurudev