सुमिरन ध्यान भजन में हो रही परेशानी का समाधान

 ⁅ जयगुरुदेव ⁆
सुमिरन ध्यान भजन से संबंधित सवाल जवाब 

स्वामीजी ! सुमिरन दिन में कितनी बार करना चाहिए ? 
उत्तर- सुमिरन २४ घंटे में एक बार अवश्य करना चाहिए। सुमिरन में आठ माला होती है। सुमिरन का समय निश्चित कर लो तो अच्छा है वैसे कभी भी कर सकते हो। यह दो बार भी किया जा सकता है। यदि ठीक से सुमिरन नहीं हुआ है तो कई बार भी कर सकते हैं।

स्वामीजी! सुमिरन के साथ ध्यान करना जरूरी है या नहीं ?
उत्तर- जिस नाम का सुमिरन किया जावे अन्तर में उसके स्वरूप का ध्यान भी जरूर करना चाहिये, वरना वह सुमिरन पूरा फायदा न देगा।

स्वामीजी! भजन सुमिरन के वक्त किस तरफ मुंह करके बैठना चाहिए ?
उत्तर- जब तक सुरत अन्तर में पहले मुकाम तक न पहुंच जावे भजन पूरब की तरफ मुंह करके बैठ के करना चाहिए। अगर ऐसा न हो सके तो उत्तर या पश्चिम की तरफ मुंह करके बैठें, दक्षिण की तरफ मुंह करके न बैठें।

स्वामी जी ! ध्यान पर जब बैठते हैं तो थोड़ी देर बाद शरीर सुन्न होने लगता है और लगता है क्या करूं ?
उत्तर- जीवात्मा की चेतन धारा रोम-रोम में समाई हुई है और ध्यान भजन के वक्त इसका धीरे-धीरे सिमटाव होता है। जब सिमटाव होता है तब शरीर सुन्न होने लगता है । इसमें घबराना नहीं चाहिए। इसमें लगातार अभ्यास और दृढ़ संकल्प की जरूरत है।
अगर १ घंटे बैठने का विचार किया है तो समय पूरा होने पर ही उठो ।
संतमत की साधना में जीते जी मरना होता है ।
एक बार जड़ चेतन की गांठ जो आंखों के ऊपर बंधी है वह खुल गई तो मौत का खौफ खत्म हो जाता है । जब चाहे आत्मा शरीर को छोड़ दे और देविक मंडलों की सफर करें आनंद ले और फिर वापस शरीर में आ जाए।
इस प्रारंभिक साधना में थोड़ी कठिनाई होती है। और इसमें धीरज और लगन की जरूरत है। सत्संग बहुत जरूरी है सत्संग मिलता रहेगा तो भजन में तरक्की होगी साथ ही गुरु के प्रति प्रेम बढ़ेगा।


स्वामी जी ! ध्यान के समय आसमान में चमकते तारे दिखाई देते हैं फिर गायब हो जाते हैं ऐसा क्यों ?
उत्तर- इस आसमान के ऊपर से प्रथम में साधना का प्रारंभ होता है जहां तारामंडल है और वह कभी लोप नहीं होता | यह चंचल मन है जो हिलता रहता है उसे नहीं देख पाता | जीवात्मा अंदर जाती है और लौट आती है| वहां फाटक है जिसे तोड़ना पड़ता है तब आध्यात्मिक यात्रा शुरु होती है | फाटक के टूटते ही शब्द यानी नाम प्रगट हो जाता है और मधुर मधुर राग रागिनियां सुनाई देने लगती हैं |


*स्वामी जी ! ध्यानमें कभी प्रकाश दिखाई देता है कभी नहीं और भजन में कभी शब्द सुनाई देता है कभी सुनाई नहीं पड़ता *|
उत्तर-  तुम प्रगाड़ वासना लेकर संसार में फंसे हुए हो इसीलिए ऐसा होता है | कभी शब्द सुनाई देता है तो कभी नहीं सुनाई देता इसी प्रकार प्रकाश भी कभी दिखाई दिया कभी नहीं दिखाई दिया |
जितना ही तुम दुनिया से उदास होंगे उतना ही वासनाएं धराशाई होती चली जाएगी | दुनिया से उदासीनता और मालिक से मिलने के लिए प्रेम तड़प जरूरी है | जब लगन कम हुई तो भजन में भी कमी आ गई | दुनिया का चिंतन और भजन दोनों का मेल नहीं खाता | संसार में चाहे जितना भी लगे रहो वह तुम्हारे काम आने वाला नहीं | काम बिगड़ गया तो दुख और दुनिया भी हंसती है| परमार्थ के रास्ते पर निर्मल होकर चलोगे तभी काम बनेगा | जब जाने लगे तो सुई की नोक भी यहां से तुम नहीं ले जा सकते | केवल भजन की पूंजी जो इकट्ठा की है वही साथ जाएगी |
इसीलिए भजन पर ध्यान दो वही सार है |


स्वामी जी ! फोटो का ध्यान करना चाहिए की नहीं ?
उत्तर - गुरु की फोटो का ध्यान करना उचित नहीं है | फोटो और असलियत में अंतर है | फोटो जड़ है और गुरु चेतन है| फोटो तुम्हारे और गुरु के दरमियान एक बाहरी वस्तु के रूप में खड़ा हो जाता है | इसलिए गुरु के स्वरूप का ध्यान करना चाहिए|
जो नामदान के वक़्त गुरु का स्वरूप तुमने देखा है उसका ध्यान करने से बंधन ढीले होते हैं | फोटो यादगार के लिए है और उसका सम्मान होना चाहिए| आंखें बंद करके गुरु के चेतन स्वरुप का ध्यान करना चाहिए| आंखों के पर्दे के पीछे गुरु खड़ा है और हर वक्त तुम्हें देखता रहता है| 
जीवात्मा की आंख बंद है इसलिए तुम नहीं देख पाते हो| प्रयास इस बात का होना चाहिए कि जीवात्मा की आंख यानी दिव्य आंख खुले तभी चेतन सृष्टि में प्रवेश मिल सकता है | गुरु का भौतिक स्वरूप यहां समझाने बुझाने के लिए है| 


स्वामी जी ! भजन में तरक्की नहीं होती क्या करें ?
उत्तर- इसमें तुम्हारे मन का कसूर है । तुम्हें सत्संग नहीं मिलता मन पर कोई लगाम नहीं जहां चाहता है भागता रहता है । संसार के सामानों के लिए अनावश्यक तृष्णा और भजन को गैर जरूरी समझना यह सब कारण है जिससे भजन नहीं हो पाता है ।
मन को लगाकर सुमिरन करो तब एकाग्रता आएगी और जब एकाग्रता आएगी तब सुरत का फैला प्रकाश धीरे धीरे से सिमटने लगेगा। सिमटाव होने पर आत्मा शरीर को छोड़ना शुरू कर देगी है और शरीर सुन्न होने लगता है।
शरीर के नौ द्वारों से जब जीवात्मा का प्रकाश खिंच जाएगा तब दोनों आंखों के पीछे दसवें द्वार से वह निकल कर बाहर चली जाएगी और ऊपर के मंडलों का भ्रमण करने लगेगी ।
लेकिन यह सब तभी होगा जब तुम लगन और मेहनत के साथ सुमिरन, ध्यान और भजन करोगे।
अभी तो मन फैला हुआ है और संसारी वस्तुओं को आध्यात्मिक वस्तुओं के मुकाबले अधिक महत्वपूर्ण समझता है ।
सांसारिक विद्या मन को फैलाती है और पराविद्या मन का सिमटाव करती है।
 ◉ जयगुरुदेव ◉

Baba Jaigurudev ji maharaj



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