जयगुरुदेव
जब मैं भ्रमण करता था
बात पुरानी है। एक बार मैं शास्त्री जी श्री सुरेन्द्र शर्मा को साथ लेकर देहरादून की तरफ गया। शर्मा जी गुरु महाराज के छोटे पुत्र हैं। वहां मुझे एक सन्यासी जी मिले। बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि डी.एम. मेरा शिष्य है, एस.पी. मेरा शिष्य है और थानेदार मेरे पास आता जाता रहता है। फिर उन्होने हमसे पूछा कि आप लोगों का कैसे चलता है ?
मैंने कहा कि मेरे पास तो एक पैसा नही है। मैं तो गुरु महाराज के भरोसे रहता हूं। वो कोई न कोई व्यवस्था कर देते हैं। इस बात पर सन्यासी को विश्वास नहीं हुआ। मैंने हंसकर कहा कि भाई मेरी नंगाझोरी ले लीजिए मेरे पास कुछ नहीं है।
खैर फिर सन्यासी बोले कि आप बैठिये मैं बाजार से सामान लाता हूं। मैंने कहा कि ठीक है आप ले आइये मैं बनाकर सबको खिला दूंगा। सन्यासी शास्त्री जी को लेकर बाजार चले गये।
सन्यासी के बाजार जाने के बाद एक आदमी अनाज, सब्जी, घी, तेल, नमक यानी सब सामान लेकर आया और बोला कि महाराज ये सामान मैं आप की सेवा मे लाया हूं आप इसे स्वीकार कर लीजिए। उसने सारा सामान रख दिया और चला गया। मैंने खाना तैयार कर लिया।
उधर सन्यासी जी बनिया के यहां पहुंचे। उन्होने आटा, दाल, घी यानी सब सामान बंधवाया। जब पैसा देने की बात आयी तो वे मुकर गये और बोले कि मैं नहीं लूंगा। दुकानदार ने कहा कि जब नही लेना था तो इतनी मेहनत क्यों करवाई ? शास्त्री जी को भी उनकी ये हरकत बुरी लगी। अन्त में वे खाली हाथ लौट आये। जब वो वापस लौटे तो देखा कि खाना तैयार है। उन्होने पूछा कि आपने कैसे तैयार कर लिया। मैंने कहा कि मैंने आप से पहले ही कहा था कि मैं गुरु महाराज के भरोसे रहता हूं। एक आदमी सब सामान दे गया और मैंने बना लिया। सन्यासी को बहुत अचंभा हुआ।
हम तीनों ने खाना खाया और उसके बाद आगे मंसूरी की तरफ चले। सन्यासी भी साथ थे। रास्ते में एक चाय की दुकान पड़ी। दुकानदार ने जब मुझे देखा तो बुलाया और बोला महाराज जी चाय पीकर जाइये।
उसके बहुत आग्रह करने पर हम तीनों चाय पीने बैठ गये। उसने अपने नौकर से मेरी तरफ और शास्त्री जी की तरफ इशारा करते हुए कहा कि इन दोनों से पैसे मत लेना। सन्यासी को बड़ा आश्चर्य हुआ।
जब हम आगे बढ़े तो बातचीत में मैंने फिर कहा कि भाई मैं सच कहता हूं कि मैं मालिक के भरोसे रहता हूं और वो मेरा सब इंतजाम कर देता है आपके पास तो बड़े बड़े लोग आते हैं मैं तो कोई शिष्य बनाता नहीं। मैं तो स्वयं राहगीर हूं। राहगीर दूसरों को क्या रास्ता दिखा सकता है।
चलते चलते शाम हो गयी। रास्ते में एक होटल दिखायी पड़ा। होटल के मालिक ने जब हमें देखा तो अपने पास बुलाया और प्रार्थना किया कि महाराज आप मेरे होटल मे ठहरिये। जितने दिन मर्जी हो रुकिये। फिर मैनेजर से उसने कहा कि इन दोनों लोगों से पैसे मत लेना और नाश्ता और भोजन समय से देते रहना। उसने भी सन्यासी की तरफ इशारा करते हुए कहा कि इनसे पैसे ले लेना।
हम लोग पन्द्रह दिन तक वहां रहे फिर देहरादून लौट आये। वहां एक दरोगा जी ने दो टिकट सहारनपुर का कटा दिया। हम लोग रेलगाड़ी से सहारनपुर पहुंचे। वहां पर एक टी.टी. ने जो टिकट की खिड़की के अन्दर बैठा था हमे देख लिया। वह बाहर आया और बोला कि आप लोगो को कहां जाना है। मैंने कहा कि अलीगढ़। वह बोला कि मैं भी अलीगढ़ चल रहा हूं। हम गाड़ी में बैठा देंगे और अलीगढ़ पहुंचने पर गेट के बाहर तक छोड़ आयेंगे।
टी.टी. ने वही किया जो कहा था। मैं और शास्त्री जी घर वापस लौट आये। शास्त्री जी के साथ में अक्सर भ्रमण किया करता था। गुरु महाराज हर कही जब जैसा देखते थे वैसा प्रबन्ध कर देते थे। हमारा गुरु के प्रति विश्वास दृढ़ होता चला गया।
– बाबा जयगुरुदेव की अमृतवाणी
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swami jaigurudev ji |
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