स्वामी जी की हिदायत 24.
*२* उत्पत्ति के समय से युवावस्था तक सुरत का विस्तार देह में होता है और अंग में उसका बन्धन दृढ़ हो जाता है।
*3* इसी अवस्था में जीव बन्धन यानी कुटुम्ब, परिवार, बिरादरी और मित्रों आदि से उत्पन्न हो जाता है और अनेक भोगों और पदार्थो में रस पाकर जीव की आसक्ति अधिक हो जाती है।
*4* सारांश यह है कि अनेक जीवों, वस्तुओं और भोगों से आसक्ति और बन्धन उत्पन्न करके जीव इस संसार के अधिक दुख और क्लेश सहन करते हैं।
अर्थात् अपने कर्मों का फल भोगने के अतिरिक्त दूसरों के कर्मों का प्रभाव भी (जब उनको दुख होता है) झेलना और सहना पड़ता है और प्रगट मे कोई यत्न ऐसे दुखों से बचने का नहीं प्रतीत होता है।
*5* जब मृत्यु का समय आता है उस समय काल मन और सुरत को ऊपर की ओर खींचता है। ये दोनों अपने स्वभाव और आसक्ति के अनुसार अंग अंग की और बाहर के बन्धनों की ओर झोंका खाते और खींचते हैं।
इसी खींचा तानी में अधिक दुख और क्लेश होता है और झटके और झकोले खाने पड़ते हैं।
*6* ऐसा कष्ट जो अन्त समय पर थोड़ा या अधिक सब जीवों को प्रगट या गुप्त रूप से सहन करना पड़ता है उसे कम या दूर करने का कोई भी यत्न अथवा चिकित्सा नहीं करता बल्कि बहुत से लोग उससे अनभिज्ञ ही हैं।
वे यहां तक संसार के कर्मों में फंसे हुए हैं कि कभी मृत्यु के समय की अवस्था का विचार भी नहीं करते।
*7* परम प्रभु सतगुरु स्वामी दयाल ने संत सतगुरु रूप धारण करके कहा है कि कुल जीवों को चाहे वे पुरुष हों या स्त्री उचित और आवश्यक है कि जीते जी अर्थात इसी जीवन में अपने प्रगट और गुप्त बन्धनों को तोड़ने या घटाने का यत्न आरम्भ कर दें और उस यत्न अथवा उपाय का प्रभाव सुरत शब्द योग के अनुसार अभ्यास करने से प्राप्त होगा।
*8* यह यत्न यह है कि जो शब्द घट-घट में प्रतिक्षण हो रहा है उसे ध्यान पूर्वक एकांत में बैठकर सुनें, शब्द धुन को पकड़कर अपने मन सुरत ऊंचे की ओर चढ़ायें और इसी प्रकार स्थानीय अथवा गुरु स्वरूप का ध्यान नियम से करें तो उसके आधार पर मन और सुरत एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर चढ़ेंगे और कुछ रस भी पायेंगे।
*9* इस अभ्यास के करने से अन्तर और बाहर के बन्धन ढीले होंगे। जितना रस मिलेगा उसी अनुसार मन और सुरत सब ओर से हटकर थोड़ा बहुत अपने घर में चढ़ेंगे।
*10* जहां तक यह बात, कि संसार और उसके भोग सब नाशवान हैं, परिवार और सम्बन्धी लोग सब स्वार्थ के मित्र हैं और इसमें किसी को सच्चा और पूरा सुख प्राप्त नहीं है, चित्त में प्रवेश करती जायेगी और अनुभव से उनकी सूचना होती जायेगी।
वहां मन व्यर्थ के बन्धनों को तोड़ देगा और आवश्यक सम्बन्धनों को ढीला करके स्वामी के दर्शन की प्राप्ति के निमित्त होशियारी और रुचि के साथ अभ्यास करेगा।
*11* यह सब बातें जो ऊपर लिखी गई हैं संत सतगुरु के सतसंग और उनके उपदेश से प्राप्त होंगी। अतएव सब जीवों को उचित है कि पहले संत सतगुरु की खोज करें, जब मौज से पिता मिल जावें उनके सतसंग में उपस्थित होकर वचन चेतकर सुनें और विचारें और सुरत शब्द मार्ग का उपदेश लेकर जिस प्रकार बन सके अभ्यास आरम्भ करें।
*12* इस संसार में संत सतगुरु के अतिरिक्त और कोई किसी का सच्चा हितकारी और साथी नहीं है। वे जीव की प्रतिक्षण रक्षा व सहायता कर सकते हैं किंतु शर्त यह है कि सच्चे मन से गुरु शरण आवे।
जहां तक बन सके, जैसा वे निर्देश करें उसके अनुसार क्रिया आवश्यक है अपने दया का बल प्रदान करके उससे करा लेंगे । अपने चरणों में प्रीति लगवा कर उसके गुप्त और प्रगट बन्धन ढीले कर देंगे। इसके करने से मृत्यु के समय कष्ट बहुत कम होगा।
वे उसे अपनी दया और कृपा से अपना दर्शन देकर उसकी सुरत को चरणों में लिपटा कर ऊंचे से ऊंचे और सुख के स्थान में निवास देंगे। जब तक कि वह क्रिया करके धुर के स्थान तक पहुंचने का अधिकारी न होगा तब तक उसे कई बार मनुष्य योनि में जन्म दिलाकर और श्रेणी प्रति श्रेणी क्रिया कराकर ऊंचे से ऊंचे और अधिक से अधिक सुख स्थान में निवास देते जावेंगे और एक दिन परम पुरुष धाम में पहुंचाकर उसे अमर और परमानन्द प्रदान करेंगे।
वे जन्म मरण और देहियों के दुःख सुख से सदैव के लिए छुटकारा कर देंगे।
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