*जयगुरुदेव : साधक विघन निरुपण 8*

◆ अमृत वाणी ◆

37. ◆ *फुटकर शब्द* ◆

● साधक के गिरने का सम्पूर्ण मार्ग अविश्वास है।
● सन्त सतगुरु साधक को हर चीजें दे सकते हैं।
● इसलिए सारे जीवन साधक परमार्थी धन से महरूम रहता है।

● गुरु साधक को लोक और परलोक का धन देते हैं जो उनके रहनुमाई में चलते और अपने पिता का आदर्श पैदा करते हैं। नालायकों को न यहां कुछ मिलता है न बाद में। इससे साधकों को समझाया जाता है कि लायक बनकर गुरु से लोक परलोक का धन ले लो ताकि यहां भी सुख हो और परलोक में भी जाने का समय मिले।

● साधकों की बहुत कमियां हैं जो कि गुरु समय आने पर उभायेगा और वह कमियां दूर होंगी।

● साधको को आंख बन्द करके ध्यान व सुरत शब्द के अभ्यास में लगातार जब जब मौका मिले लगे रहना चाहिए।
● साधक पूर्ण विश्वास करे, जो गुरु कहते हैं वह सत्य है और हमारी तरक्की हमारे साधन के अनुसार होगी।

● गुरु की दया हुई, रास्ता दिया और तुमको उस घाट पर बैठाया जहां से रास्ता मालिक के मिलने का गया है।
● साधक ध्यान  में रक्खे कि यदि दया न हुई होती तो गुरु अपना गूढ़ भेद कैसे देता। अब तो पालन करना होगा।
● साधक को गुण छिपाना चाहिए और अवगुण प्रकट करना चाहिए।

● साधक विश्वास रक्खे कि जितना ही दुनिया साधक की बुराई  निन्दा करेगी उतना ही साधक का पाप हल्का होगा। केवल अपने साधन के हेतु सुलभी रास्ता हम निकाल रहे हैं।
● गुरु समरथ हैं वह सब बर्दाश्त करते हैं। केवल साधक घबरा जाता है उसके लिए चाहे जो करे पर उन्हें जरा सा भी असर नही होता । दुख सुख से न्यारे हैं।

● सुरत को सूक्ष्म के साथ जोड़कर  साधन करते रहो। जीवन इसी साधन के लिए मिलता है।
● जो यह साधन नहीं करते हैं वह दुनिया में आये, न आये बेकार हैं।



38. ● *साधक को हिदायतें* ●

★ सुरत आंखों के पीछे भाग में बैठी है। अपनी दोनों आंखें गुरु की युक्ति अनुसार बन्द करो, और अन्तर के नूर प्रकाश को एकटक होकर देखो तो तुम्हें प्रकाशवान बिन्दु मिलेगा। 

★ तुम अपनी सुरत को गुरु की युक्ति अनुसार उस प्रकाश बिन्दु पर टिका दो। जब सुरत उस प्रकाशवान बिन्दु पर ठहरने लगे और सुरत तुम्हारी साफ होती हुई नजर पड़ने लगे उस वक्त तुम सावधानी के साथ रहो। 
ऐसी नाजुक पवित्र अवस्था में साधक को समझकर रहने की विशेष जरुरत है। 

★ ज्यों ज्यों प्रकाश उसी बिन्दु का बढ़ता जावे और प्रकाश सा नजर आने लगे उस वक्त साधक आकाश की ओर देखने लगते हैं। देखते ही जो आगे ले जाने वाला बिन्दु है उसका आधार छूट जाता है और साधक अपने लक्ष्य से दूर हो जाता है।

★ साधकों तुम्हे गुरु का सतसंग अति होशियारी अर्थात् विवेक से करना होगा, ताकि साधन करते वक्त जो तुम्हारी त्रुटियां होती रहती हैं वह साधन करते वक्त न हों। 
★ जब साधक ने साधना करते वक्त प्रकाशवान बिन्दु का आधार छोड़ दिया और खुले आकाश में केवल प्रकाश देखता है उस वक्त साधक सोचता है कि आगे कुछ नहीं या कोई रचना नही है। साधक को साधन करने की प्रक्रिया भली भांति गुरु से समझते रहना चाहिए ताकि साधना करते वक्त गल्तियां न हों।

★ साधन करते वक्त सुरत ने अपने सही निशाने के बिन्दु को पकड़ लिया था। जब जब सुरत बिन्दु पर ठहरती जावेगी उसी तरह सुरत का प्रकाश बढ़ता जावेगा और सुरत पुष्ट प्रौढ़ होती जावेगी। 

★ प्रकाश के पाने से सुरत में ताकत भी आवेगी और एक नशा भी मस्ती का सुरत पर चढ़ेगा। जब सुरत पर प्रकाश का नशा चढ़ना शुरु होता है उसी वक्त से घट  के काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार कमजोर होने लगते हैं। 

★ जब सुरत बिन्दु पर टिकी रही तो कुछ दिन के बाद सुरत तीसरे तिल पर पहुंचती है जहां पर आत्मज्ञान होता है। 
★ जब सुरत को अपना आत्मज्ञान हो गया उसी वक्त प्रलोभन की शक्ति आ जाती है जो कि इस बात का ज्ञान देती है कि तुम राजपट, धन, जन, विद्या, मान आदि जो चाहो ले सकते हो।

★ इन शक्तियों का अविष्कार इसलिए होता है कि साधक साधन के द्वारा अपनी सुरत को आगे न ले जा सके।

★ सुरत की डोरी निरंजन भगवान के पास, मन की डोरी माया के हाथ, बुद्धि की डोरी विष्णु के हाथ, चित्त की डोरी ब्रह्मा के हाथ है तथा अहंकार की डोरी शिव के हाथ है। अपने अपने गुण के देवता जिसकी डोरी पकड़े हुए हैं जब सुरत ऊपर चढ़ना चाहती है उसको उभार देते हैं। ताकि सुरत ऊपर न चढ़ सके और सच्चा तत्व नाम है उसको न पा सके।

जयगुरुदेव
शेष क्रमशः अगली पोस्ट  no. 09  में... 

Parmarthi vachan sangrah
sadhak bighan nirupan 


Baba Jaigurudev



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