■ जयगुरुदेव | स्वामी जी की कलम से ■ [7]

*प्रश्न ३३.  स्वामी जी!  नाम दान लेने के बाद सत्संगी की रहनी कैसी होनी चाहिए ?*

उत्तर - सत्संगी को सदा रात दिन सोते जागते अपने गुरु के प्रति प्रेम ताजा रखना चाहिए। जो वचन सत्संग में सुनाए जाते हैं उसके अनुसार अपना जीवन बिताना हितकर है । जब आत्मा तीसरे तिल में आंखों के ऊपर अपनी बैठक बना लेती है तब वह सदा जागृत अवस्था में रहती है और शरीर के आंखों के नीचे का भाग सोने की स्थिति में रहता है। इसके बावजूद आत्मा नीचे आने के बदले सदा ऊपर के मंडलों में चढ़ाई जारी रखती है।

कहने का मतलब यह है कि शरीर का वह भाग जिसमे आत्मा एकाग्र होती है उस समय क्रियाशील हो जाता है। आत्मा जब आंखों से ऊपर के केंद्रों में चली जाती है तब निचले चक्र सो जाते हैं । जहां तक आंखों से ऊपर वाले केंद्रों का सवाल है सारी दुनिया सोई हुई है। सत्संगी को कम खाना चाहिए, गम खाना चाहिए और कम बोलना चाहिए । सदा भजन ध्यान सुमिरन की चिंता बनी रहेगी तो साधन के वक्त मन अधिक भागदौड़ नहीं करेगा।


 *३४. स्वामीजी !  वासना के वेग को कैसे रोका जा सकता है?*

 उत्तर - जब वासना का बैग आता है तब गुरु याद नहीं आते हैं । गुरु की सेवा हमने लाखो बार की हो और गुरु की मूरत का ध्यान हर रोज करते हो और गुरु से चाहे हमने इतना प्यार किया हो कि हम उनके बगैर दर्शन के रह ही नहीं सकते हों । फिर भी जो विकारी अंग प्रकट हुआ है वह खत्म नहीं होता । 

विकारी अंगों की वजह से हम गुरु को अधूरा समझते हैं । गुरु का ध्यान सुमिरन करना तो दूर रहा उल्टे उन्हें बुरा भला कहने लगते हैं और अंततः गुरु का मार्ग भी छोड़ देते हैं । इसलिए जब विकारी अंग इंद्रियों के जगें तो गुरु के पास जाकर भजन और सेवा में लग जाना चाहिए । पर्दा जो आया गया था चंचलता बढ़ गई थी मन बुद्धि चित्त मलीन हो गए थे वह गुरु की दया से साफ होने लगेंगे।


 *३५. स्वामी जी !  भजन ध्यान के द्वारा आत्मा इस शरीर को खाली कब करती है ?*

उत्तर - भजन के द्वारा जब जीवात्मा के प्रकाश का सिमटाव होता है और प्रकाश सिमटकर जब दोनों आंखों के पीछे आता है तब जीवात्मा की आंख यानी दिव्य दृष्टि खुलने लगती है। ऊपर तीसरे तिल में जब जीवात्मा पहुंचती है तब वह इस स्थूल चोले को उतार देती है और उस समय के लिए शरीर से आजाद और अलग हो जाती है। यह ठीक वैसे ही होता है जैसे हम अपना कोट उतार देते हैं ।

इस जीवात्मा के ऊपर चार खोल चढ़े हुए हैं । सबसे मोटा खोल यह पांच तत्वों का शरीर है  इस खोल को उतारते ही जीवात्मा लिंग शरीर में आ जाती है । लिंग शरीर देवी देवताओं का होता है जो स्वर्ग और बैकुंठ लोक में रहते हैं । आत्मा जब लिंग शरीर को उतार देती है तो सूक्ष्म शरीर धारण करती है सूक्ष्म शरीर निरंजन भगवान ईश्वर खुदा गॉड का है । हैं एक ही मगर अलग अलग नाम से पुकारे जाते हैं । 

उनका दर्शन करने के बाद जीवात्मा और ऊपर जाती है तो सूक्ष्म शरीर भी छोड़ देती है और कारण शरीर धारण करती है । कारण शरीर में ही ब्रह्म विद्यमान हैं और वे कारण शरीर में है शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध।
 
ब्रह्म लोक से भी ऊपर जब जीवात्मा जाती है तो वहां गुरु बैठे हुए हैं जो यहां नाम दान देते हैं। जीवात्मा और चारों शरीरों के खोल को उतार कर अपनी वास्तविक रुप में आ जाती है । उस पर कोई पर्दा नहीं रहता । वह स्वयं दूसरों को भोजन देने लगती है । उसमें इतना प्रकाश होता है कि उसके आगे ईश्वर और ब्रह्म का प्रकाश फीका  दिखाई देता है।  यहां मानसरोवर है जिस में स्नान करने के बाद जीवात्मा जन्म मरण के बंधन में फिर नहीं आती।


 *३६. स्वामी जी !  मन सदा गुमराह करता रहता है कैसे बचा जाए ?*

उत्तर - मन का काम ही है जीव को गुमराह करना । मन की डोरी माया के हाथ में और जब चाहे तब इसको डोरी हिला कर नचा देती है भ्रमित कर देती है। गुरु के वचन याद रहे तब इसका जोर नहीं चलता । फिर भी मन अपनी पूरी कोशिश करता है कि जीवात्मा को भ्रम में डालें रहे और भजन से दूर रखे। 
जो लोग भजन ध्यान करते हैं और ऊपर की चढ़ाई होने लगती है तब मन की शक्ति घटती जाती है । लेकिन इसकी चाल इतनी सूक्ष्म है कि बड़े-बड़े ऋषि मुनियों पीर पैगंबरों ने अपनी इच्छा से खुशी-खुशी अपने आप को इस के सुपुर्द कर दिया और उसके इशारों पर नाचते रहे ।

यह कभी-कभी सत्संगी को गुरु से भी विमुख कर देता है । ऐसा बुरे कर्मों के असर के कारण होता है।  जब कर्मों का चक्र खत्म हो जाता है तब यह फिर जागृत होता है। तुम गुरु के वचनों को बराबर याद करते रहो । और मन की निगरानी करते रहो। साथ ही भजन करोगे तो शब्द को सुनकर यह धीरे-धीरे काबू में आने लगता है । मन भजन से ही बस में होगा।


 *३७. स्वामी जी!  पहले मन भजन में लगता था और शब्द सुनाई भी पढ़ता था किंतु अब ऐसा नहीं होता क्या कारण है?*

 उत्तर-  जब हम गुरु और सत्संग से दूर रहते हैं तब दुनिया अप्रत्यक्ष और अदृश्य रुप से हम पर इतना प्रभाव डालती है कि नियम से सुमिरन और भजन के लिए समय देने पर भी हम अक्सर निराश रूखा फीका और सूना महसूस करने लगते हैं । ऐसी हालत में प्रेम और विश्वास ही हमारी मदद करते हैं। अगर विश्वास द्रण है तो गुरु सहायता देते हैं । 

ऊंचे स्थान पर बैठ कर हर क्षण सत्संगी के कार्यों को, उसकी भाव भक्ति की निरख परख करते रहते हैं । गुरु की बैठक आंखों के ऊपर तीसरे तिल में है । अतः वे सदा हमारे अंदर हैं और हमें उसी प्रकार देखते रहते हैं जैसे की मां अपने बच्चे को हर वक्त देखती रहती है ।
काम करते हुए हमेशा लो गुरु की तरफ लगी रहे तो सांसारिक कर्म यानी क्रियमाण कर्म अपना अधिक प्रभाव आत्मा पर नहीं डाल पाते हैं । विरह के साथ रात में सोते वक्त एक प्रार्थना किसी महापुरुष की करके सोना चाहिए । मालिक के लिए दो आंसू गिर जाए तो उसकी दया का वेग चल पड़ता है।


 *३८. स्वामी जी !  तकलीफे क्यों आती हैं ?*

उत्तर - इंसान के अच्छे बुरे कर्मों के कारण दुःख - सुख आते हैं। संसार में आत्मरक्षा के लिए तीन मुख्य रास्ते हैं पहला- जो देश का शासक हो वह अपनी पूरी जिम्मेदारी के साथ जनता की भलाई के कार्य करें ।अगर वह ऐसा नहीं करता तो परेशानियां तो आएगी ही इसे कोई रोक नहीं सकता ।

दूसरा -  जो डॉक्टर है उसे इमानदारी और मेहनत के साथ अपना दायित्व निभाना चाहिए। लालची डॉक्टर के पाले अगर कोई पड़ गया तो बर्बाद हो जाएगा कंगाल हो जाएगा और मर्ज बना रहेगा। फिर तो तकलीफ ही तकलीफ है। 

तीसरा-  गुरु अगर ज्ञानी है शुभचिंतक है निर्लोभी है तभी वह तुम्हारा सही मार्ग दर्शन कर सकता है । अगर यह सभी तीनों अपनी जिम्मेदारियों का त्याग करते हुए चलते हैं तब हर प्रकार के दुख और तकलीफें बढ़ जाती हैं। अर्थार्थ देश, शरीर व धर्म तीनों का पतन हो जाता है।


 *३९. स्वामी जी!  पारिवारिक कलह से बहुत दुःखी हूं क्या करूं?*

उत्तर - पति पत्नी, बहू सास, लड़के बाप, दोस्त मित्र सब में उदासी मिलेगी। क्योंकि सभी स्वार्थ में एक दूसरे से बंधे हैं। मुंह देखे कि प्रीति है। उदासी की दुनिया में सिवाय उदासी के और क्या मिलेगा । आशिक बनो तो ऐसे बनो ऐसी वस्तु से इश्क करो कि प्रेम कभी टूटे ही नहीं ।
दुनिया के लोगों के साथ में रहकर आत्मा का झुकाव नीचे की ओर हो गया है और मन इंद्रियों के दरवाजे पर आनंद ढूंढ रहा है। पर वहां क्षणिक आनंद है स्थाई आनंद नहीं है ।

जीवात्मा प्रेम के समुद्र की एक बूंद है और वो अपने खोए प्रेम को खोज रही है । प्रेम आंखों के ऊपर आने पर मिलेगा । इसलिए भजन में मन को लगाओ और परिवार में रहकर अपना दायित्व निभाते हुए दूसरों के वचनों को थोड़ा बर्दाश्त करते हुए मेहनत और ईमानदारी के साथ अपना शेष जीवन को बिताओ।


जयगुरुदेव ●
शेष क्रमशः पोस्ट न. 8 में पढ़ें  👇🏽

युग महापुरुष बाबा जयगुरुदेव जी महाराज  



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